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जीवन कहानी

सत्तर सालों से मैंने यहूदी के वस्त्र की छोर को पकड़ रखा है

सत्तर सालों से मैंने यहूदी के वस्त्र की छोर को पकड़ रखा है

लैनर्ड स्मिथ की ज़ुबानी

मैं करीब 13 साल का था, जब बाइबल की दो आयतों ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। आज सत्तर साल बाद भी, मुझे वह दिन याद है जब मैंने जकर्याह 8:23 में लिखे शब्दों का मतलब समझा था। वहाँ लिखा है: “दस मनुष्य, एक यहूदी पुरुष के वस्त्र की छोर को यह कहकर पकड़ लेंगे, कि, हम तुम्हारे संग चलेंगे, क्योंकि हम ने सुना है कि परमेश्‍वर तुम्हारे साथ है।”

यह यहूदी पुरुष अभिषिक्‍त मसीहियों को दर्शाता है और “दस मनुष्य” ‘दूसरी भेड़ों’ को, जिन्हें उस ज़माने में “योनादाब” कहा जाता था। * (यूह. 10:16) जब मुझे यह बात समझ में आयी, तब मुझे एहसास हुआ कि धरती पर हमेशा तक जीने की मेरी आशा किस हद तक अभिषिक्‍त वर्ग का साथ देने पर टिकी है।

मत्ती 25:31-46 में दी “भेड़ों” और “बकरियों” की यीशु की मिसाल का भी मुझ पर गहरा असर हुआ। ‘भेड़’ उन लोगों को दर्शाते हैं, जिन्हें परमेश्‍वर की तरफ से आशीषें मिलेंगी, क्योंकि वे धरती पर रहनेवाले यीशु के अभिषिक्‍त भाइयों के साथ भलाई करते हैं। एक जवान योनादाब होने के नाते मैंने खुद से कहा: ‘लैन, अगर तुम चाहते हो कि यीशु तुम्हें भेड़ करार दे, तो तुम्हें उसके अभिषिक्‍त भाइयों का साथ देना होगा और उनकी अगुवाई में चलना होगा, क्योंकि परमेश्‍वर उनके साथ है।’ सत्तर सालों से भी ज़्यादा समय से यही बात मेरा मार्गदर्शन करती आयी है।

‘मेरी जगह कहाँ है?’

मेरी माँ का बपतिस्मा सन्‌ 1925 में बेथेल के सभा घर में हुआ। इस सभा घर को लंदन टैबरनैकल कहा जाता था और उस इलाके के भाई-बहन, सभाओं वगैरह के लिए इसका इस्तेमाल करते थे। मेरा जन्म 15 अक्टूबर, 1926 को हुआ। मार्च, 1940 में मैंने इंग्लैंड के तट पर बसे डोवर शहर में आयोजित एक सम्मेलन में बपतिस्मा लिया। इसके बाद बाइबल की सच्चाइयों के लिए मेरा प्यार और भी गहरा हो गया। मेरे पिता और दीदी सच्चाई में नहीं थे। माँ एक अभिषिक्‍त मसीही थी, इसलिए वही पहली ‘यहूदी थी, जिसके वस्त्र की छोर’ मैंने पकड़ी। हम दक्षिणपूर्वी इंग्लैंड के जिलिंगम मंडली में जाते थे और वहाँ के ज़्यादातर भाई-बहन अभिषिक्‍त मसीही थे। माँ ने मेरे आगे जोश के साथ प्रचार करने की एक अच्छी मिसाल रखी।

सितंबर, 1941 में लेस्टर शहर में हुए एक अधिवेशन में एक भाषण दिया गया था, जिसका विषय था “खराई।” उसमें इस बात पर चर्चा की गयी थी कि सारे जहान पर हुकूमत करने का हक किसका है। उस भाषण से मुझे पहली बार यह समझ में आया कि शैतान ने यहोवा की हुकूमत को लेकर जो मसला खड़ा किया था, उसमें हम भी शामिल हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम सारे जहान के मालिक यहोवा का पक्ष लें और उसके वफादार बने रहें।

उस अधिवेशन में पायनियर सेवा पर बहुत ज़ोर दिया गया था और जवानों को बढ़ावा दिया गया कि वे इसे अपना लक्ष्य बनाएँ। एक भाषण दिया गया, जिसका विषय था: “संगठन में पायनियरों की जगह।” इसने मुझे सोचने पर मज़बूर किया कि आखिर संगठन में ‘मेरी जगह कहाँ है?’ उस अधिवेशन से मैंने यह समझा कि योनादाब होने के नाते मेरा फर्ज़ बनता है कि मैं प्रचार में अपना भरसक करके अभिषिक्‍त वर्ग की मदद करूँ। इसलिए वहीं लेस्टर शहर में मैंने पायनियर बनने के लिए अर्ज़ी भर दी।

युद्ध के समय में पायनियर सेवा

पहली दिसंबर 1941 को 15 साल की उम्र में मैंने खास पायनियर सेवा शुरू की। माँ मेरी पहली पायनियर साथी थी, मगर एक साल बाद, उन्हें खराब सेहत की वजह से पायनियर सेवा छोड़नी पड़ी। इसके बाद, लदंन के शाखा दफ्तर ने भाई रॉन पार्कन को मेरे पायनियर साथी के तौर पर नियुक्‍त किया। भाई रॉन अब प्यूर्टो रिको की शाखा-समिति में सेवा करते हैं।

हमें केंट प्रांत में, तट पर बसे ब्रॉडस्टेर्ज़ और रैम्सगेट कसबों में भेजा गया। वहाँ हमने एक कमरा किराए पर लिया। खास पायनियरों को अपने खर्चों के लिए हर महीने 40 शिलिंग (उस ज़माने में करीब 8 अमरीकी डॉलर) मिलते थे। किराया देने के बाद हमारे हाथ कुछ खास नहीं बचता था। अकसर हमें यह नहीं पता होता था कि अगले वक्‍त की रोटी का इंतज़ाम कैसे होगा। मगर यहोवा ने हमेशा किसी-न-किसी तरीके से हमारी ज़रूरतों का खयाल रखा।

हम अकसर साइकिल पर लंबी दूरी तय करते थे। सामान से लदी साइकिलें चलाते वक्‍त हमें सागर से आनेवाली ज़ोरदार हवाओं को झेलना पड़ता था। हमें हवाई हमलों और जर्मन सेना की मिसाइलों से भी बचना पड़ता था, क्योंकि ये लंदन पर धावा बोलने के लिए केंट से गुज़रती थीं और वह भी काफी कम ऊँचाई पर। एक बार तो मुझे साइकिल चलाते वक्‍त अपनी जान बचाने के लिए एक गड्ढे में कूदना पड़ा, जब एक बम मेरे सिर के बिलकुल ऊपर से होकर पास के एक खेत में जाकर फटा। इन सब के बावजूद हमने केंट में जितने साल पायनियर सेवा में बिताए, उनसे हमें बहुत खुशी मिली।

मैं “बेथेलवाला” बना

मेरी माँ हमेशा बेथेल की बहुत तारीफ किया करती थी। वह कहती थी, “काश तू बेथेलवाला होता।” मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब जनवरी 1946 में मुझे तीन हफ्तों के लिए लंदन बेथेल में सेवा करना का न्यौता दिया गया। तीन हफ्तों के खत्म होने पर शाखा दफ्तर के निगरान भाई प्राइस ह्‍यूज़ ने मुझे बेथेल में ही रह जाने की इजाज़त दी। वहाँ मुझे जो तालीम मिली, उसका मेरी बाकी की ज़िंदगी पर गहरा असर हुआ।

उस वक्‍त लंदन बेथेल परिवार में करीब 30 लोग थे जिनमें से ज़्यादातर, जवान अविवाहित भाई थे। लेकिन बहुत-से अभिषिक्‍त भाई भी थे, जैसे प्राइस ह्‍यूज़, एडगर क्ले और जैक बार। भाई बार, बाद में शासी निकाय के सदस्य बने। एक जवान के तौर पर मंडली के इन ‘खंभो’ की निगरानी में रहकर, मसीह के भाइयों का साथ देना मेरे लिए वाकई सम्मान की बात थी!—गला. 2:9.

एक दिन एक भाई ने मुझसे कहा कि सामनेवाले दरवाज़े पर एक बहन मुझसे मिलने आयी है। मैं वहाँ गया, तो मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि वहाँ मेरी माँ एक पैकेट लिए खड़ी थी। उसने मुझसे कहा कि वह अंदर नहीं आएगी क्योंकि मैं अभी काम पर हूँ। फिर माँ मुझे वह पैकेट देकर चली गयी। उसमें एक गरम कोट था। उसके प्यार-भरे तोहफे को देखकर मुझे हन्‍ना की याद आयी, जो अपने बेटे शमूएल के लिए बागा लाती थी, जब वह निवासस्थान में सेवा करता था।—1 शमू. 2:18, 19.

गिलियड—एक यादगार अनुभव

सन्‌ 1947 में बेथेल से हम पाँच लोगों को अमरीका में गिलियड स्कूल में हाज़िर होने का न्यौता मिला। हम लोग गिलियड के 11वीं क्लास में हाज़िर हुए जो सन्‌ 1948 में हुई थी। जब हम अमरीका पहुँचे, तो न्यू यॉर्क के उत्तरी इलाके में, जहाँ गिलियड स्कूल था, काफी ठंड पड़ रही थी। उस वक्‍त माँ का दिया गरम कोट मेरे बहुत काम आया।

गिलियड में बिताए छ: महीने मैं कभी नहीं भूल सकता। सोलह देशों से आए विद्यार्थियों के साथ मिलने-जुलने से मैं बहुत कुछ सीख पाया। स्कूल से मुझे जो तालीम मिली, उससे यहोवा के साथ मेरा रिश्‍ता और भी मज़बूत हुआ। साथ ही, आध्यात्मिक तौर पर तजुरबेकार मसीहियों की संगति से भी मैं बहुत कुछ सीख पाया। उस दौरान जिन लोगों से मेरी पहचान हुई, उनमें से तीन लोग आगे चलकर शासी निकाय के सदस्य बने। ये थे, मेरी ही क्लास का एक विद्यार्थी, लॉयड बैरी, हमारे एक प्रशिक्षक, अलबर्ट श्रोडर और जॉन बूथ, जो किंगडम फार्म के निगरान थे (जहाँ गिलियड स्कूल स्थित था)। मैं इन भाइयों की बहुत कदर करता हूँ क्योंकि इन्होंने न सिर्फ मुझे प्यार-भरी सलाह दी, बल्कि यहोवा और उसके संगठन के वफादार रहने में मेरे लिए एक अच्छी मिसाल भी रखी।

सर्किट काम और वापस बेथेल

गिलियड के बाद, मुझे अमरीका के ओहायो राज्य में सर्किट काम के लिए भेजा गया। मैं उस वक्‍त सिर्फ 21 साल का एक जोशीला नौजवान था। फिर भी भाइयों ने बड़े प्यार से मेरा स्वागत किया। मैंने सर्किट के अनुभवी बुज़ुर्गों से बहुत कुछ सीखा।

कुछ महीनों बाद, मुझे और तालीम देने के लिए फिर ब्रुकलिन बेथेल बुलाया गया। उस दौरान मैं मिल्टन हेन्शल, कार्ल क्लाइन, नेथन नॉर, टी.जे सलिवन (इन्हें बड सलिवन भी पुकारा जाता था) और लाइमन स्विंगल जैसे भाइयों को जान पाया जो सच्चाई में मज़बूत खंभों की तरह थे। ये सभी शासी निकाय के सदस्य रहे हैं। उनके काम करने का तरीका देखना और दूसरों के साथ उनके मसीही बर्ताव पर गौर करना, सच में मेरे लिए एक कमाल का अनुभव रहा। यहोवा के संगठन पर मेरा यकीन और भी पक्का हो गया। ब्रुकलिन में प्रशिक्षण खत्म करने के बाद मुझे सेवा करने के लिए दोबारा यूरोप भेजा गया।

फरवरी 1950 में मेरी माँ गुज़र गयी। उसकी अंत्येष्टि के बाद मैंने अपने पिता और अपनी बहन, डोरा से बात की। मैंने उनसे पूछा: “देखिए, अब माँ नहीं रहीं और मैं भी आप लोगों के साथ नहीं रहता हूँ। क्या आप दोनों ने सच्चाई को अपनाने के बारे में कुछ सोचा है?” हैरी ब्राउनिंग नाम के एक बुज़ुर्ग भाई से उनकी अच्छी पहचान थी और वे उनकी इज़्ज़त करते थे। वे दोनों इस अभिषिक्‍त भाई के साथ बाइबल के बारे में चर्चा करने के लिए राज़ी हो गए। एक साल के अंदर दोनों ने बपतिस्मा ले लिया। बाद में पिताजी को जिलिंगम मंडली में सेवक के तौर पर नियुक्‍त किया गया। उनकी मौत के बाद, डोरा ने रॉइ मोरटन नाम के एक मसीही प्राचीन से शादी कर ली और सन्‌ 2010 में अपनी मौत तक वफादारी से यहोवा की सेवा करती रही।

फ्राँस में सेवा करना

जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब मैंने फ्रेंच, जर्मन और लातीनी भाषा सीखी थी। लेकिन मुझे फ्रेंच बहुत मुश्‍किल लगती थी। इसलिए जब मुझे फ्राँस के बेथेल में मदद करने के लिए कहा गया, तो मुझे खुशी के साथ-साथ थोड़ी घबराहट भी हुई। वहाँ, मुझे आन्‌री जिजे नाम के एक बुज़ुर्ग अभिषिक्‍त भाई के साथ काम करने का सम्मान मिला, जो पैरिस बेथेल के शाखा सेवक थे। मेरा काम हमेशा आसान नहीं था और मैंने कई बार गलतियाँ भी कीं, लेकिन इन अनुभवों से मैंने आपसी रिश्‍तों के बारे में बहुत कुछ सीखा।

इसके अलावा, सन्‌ 1951 में युद्ध के बाद पैरिस में जो पहला अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन रखा गया था, उसके इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी सँभालनेवाले भाइयों में मैं भी एक था। लेऑपॉल शॉन्टा नाम के एक जवान सफरी निगरान को बेथेल में मेरा हाथ बँटाने के लिए भेजा गया। बाद में इस भाई को शाखा निगरान के तौर पर नियुक्‍त किया गया। यह अधिवेशन आइफल टावर के पास, पॉले डि स्पोर में रखा गया था। अट्ठाईस देशों से भाई-बहन आए थे। अधिवेशन के आखिरी दिन 10,456 की हाज़िरी देखकर फ्राँस के 6,000 साक्षियों को बहुत खुशी हुई।

जब मैं नया-नया फ्राँस आया था, तब मेरी फ्रेंच बहुत कमज़ोर थी। मैं सिर्फ तभी फ्रेंच बोलता था, जब मुझे पक्का यकीन होता कि मैं सही बोल रहा हूँ। लेकिन यह मेरी भूल थी क्योंकि अगर आप गलतियाँ नहीं करेंगे, तो कोई आपको सुधारेगा नहीं और आप भाषा नहीं सीख पाएँगे।

मैंने सोचा कि भाषा सीखने का एक ही तरीका है कि मैं ऐसी जगह दाखिला लूँ, जहाँ परदेसियों को फ्रेंच सिखायी जाती है। जिन दिनों सभाएँ नहीं होती थीं, मैं उन दिनों शाम को फ्रेंच सीखने जाता था। धीरे-धीरे मुझे फ्रेंच अच्छी लगने लगी और वक्‍त के गुज़रते इस भाषा के लिए मेरा प्यार और भी बढ़ गया है। इससे मुझे बहुत फायदा हुआ क्योंकि मैं अनुवाद काम में फ्राँस के शाखा दफ्तर की मदद कर पाया हूँ। कुछ समय बाद, मैं एक अनुवादक बन गया और अँग्रेज़ी से फ्रेंच में अनुवाद करने लगा। दास वर्ग के ज़रिए तैयार किया जानेवाला आध्यात्मिक भोजन, दुनिया-भर के फ्रेंच बोलनेवालों तक पहुँचाने में मदद कर पाना बड़े सम्मान की बात थी।—मत्ती 24:45-47.

शादी और दूसरी ज़िम्मेदारियाँ

सन्‌ 1956 में मैंने स्विट्‌ज़रलैंड की रहनेवाली एक पायनियर बहन से शादी की। हमारी मुलाकात कुछ साल पहले हुई थी। हमारी शादी लंदन बेथेल से लगे हुए राज-घर में हुई (वही लंदन टैबरनाकल, जहाँ मेरी माँ का बपतिस्मा हुआ था)। भाई ह्‍यूज़ ने हमारी शादी का भाषण दिया। एस्थर की माँ भी हमारी शादी में आयी थीं और वह भी अभिषिक्‍त थीं। शादी करने से न सिर्फ मुझे एक प्यारी और वफादार साथी मिली बल्कि मुझे एक ऐसी सास के साथ संगति करने का मौका भी मिला, जो आध्यात्मिक तौर पर काफी मज़बूत थीं। सन्‌ 2000 में उन्होंने धरती पर अपना जीवन खत्म किया।

शादी के बाद, एस्थर और मैं बेथेल के बाहर रहने लगे। मैंने अनुवाद काम जारी रखा और एस्थर पैरिस के उपनगरीय इलाकों में खास पायनियर के तौर पर सेवा करती रही। वह कई लोगों को सच्चाई में लाने में कामयाब हुई। सन्‌ 1964 में हमें बेथेल में रहने का न्यौता मिला। फिर सन्‌ 1976 में जब शाखा-समितियों का गठन किया गया, तो मुझे उसका एक सदस्य नियुक्‍त किया गया। परमेश्‍वर की सेवा में एस्थर हमेशा मेरे लिए एक अच्छी साथी साबित हुई है।

“मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा”

मुझे कई बार न्यू यॉर्क में स्थित हमारे विश्‍व मुख्यालय जाने का सम्मान मिला है। उन दौरों में मुझे शासी निकाय के अलग-अलग सदस्यों से कारगर सलाह मिली। उदाहरण के लिए, एक बार जब मैंने भाई नॉर से कहा कि मैं इस बात को लेकर चिंतित हूँ कि मेरा काम शायद समय पर खत्म नहीं हो पाएगा, तो उन्होंने मुस्कराकर मुझसे कहा: “चिंता मत करो। काम करो!” उसके बाद से जब कभी बहुत सारा काम सिर पर आ जाता है, तो मैं चिंता करने के बजाय काम को खत्म करने में लग जाता हूँ। मैंने पाया है कि ऐसा करने से मेरा ज़्यादातर काम अकसर सही वक्‍त पर निपट जाता है।

अपनी मौत से पहले यीशु ने चेलों से कहा: “मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।” (मत्ती 26:11) हम दूसरी भेड़ के सदस्यों को पता है कि मसीह के अभिषिक्‍त भाई हमेशा धरती पर हमारे साथ नहीं होंगे। इसलिए 70 से भी ज़्यादा सालों से, इन अभिषिक्‍त मसीहियों के साथ संगति करके, यहूदी के वस्त्र की छोर को थामे रहना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात रही है।

[फुटनोट]

^ पैरा. 5 शब्द “योनादाब” के बारे में और जानने के लिए 1 जनवरी, 1998 की प्रहरीदुर्ग का पेज 13, पैरा. 5, 6 देखिए।

[पेज 21 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

भाई नॉर ने मुस्कराकर कहा: “चिंता मत करो। काम करो!”

[पेज 19 पर तसवीरें]

(बायीं ओर) मेरी माँ और पिता

(दायीं ओर) सन्‌ 1948 में गिलियड के वक्‍त; मैंने वह कोट पहन रखा है जो माँ ने दिया था

[पेज 20 पर तसवीर]

सन्‌ 1997 में फ्राँस बेथेल के समर्पण पर भाई लॉयड बैरी के भाषण का अनुवाद करते हुए

[पेज 21 पर तसवीरें]

(बायीं ओर) हमारी शादी के दिन, एस्थर के साथ

(दायीं ओर) हम दोनों प्रचार में