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जीवन कहानी

बुद्धिमान बुज़ुर्ग मेरे दोस्त थे

बुद्धिमान बुज़ुर्ग मेरे दोस्त थे

एलवा जेरडी की ज़ुबानी

आज से करीब 70 साल पहले, हमारे घर आए एक मेहमान ने मेरे पिता को एक सुझाव दिया जिससे मेरी ज़िंदगी बदल गयी। तब से लेकर अब तक कई लोगों का मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर हुआ है। मैंने एक ऐसा दोस्त भी पाया, जिसकी दोस्ती को मैं दुनिया की किसी भी चीज़ से ज़्यादा कीमती समझती हूँ। आइए मैं आपको अपनी कहानी सुनाऊँ।

मेरा जन्म सन्‌ 1932 में ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुआ। मेरे माता-पिता को परमेश्‍वर में विश्‍वास तो था लेकिन वे चर्च नहीं जाते थे। माँ ने मुझे सिखाया था कि परमेश्‍वर हर वक्‍त हमें देखता रहता है और अगर मैं कुछ गलत करूँ, तो वह मुझे तुरंत सज़ा देगा। इस वजह से मैं परमेश्‍वर से बहुत डरती थी। लेकिन मुझे बाइबल में बहुत दिलचस्पी थी। जब मेरी मौसी शनिवार-रविवार को हमसे मिलने आतीं, तो वे मुझे बाइबल की कई दिलचस्प कहानियाँ सुनातीं। मुझे उनका बेसब्री से इंतज़ार रहता था।

जब मैं 13-14 साल की थी तब मेरी माँ को एक बुज़ुर्ग यहोवा की साक्षी से किताबों का एक सेट मिला। पिताजी ने उन किताबों को पढ़ा और उन्हें वे इतनी अच्छी लगीं कि वे साक्षियों के साथ अध्ययन करने को तैयार हो गए। एक शाम जब उनका बाइबल अध्ययन चल रहा था, तो पिताजी ने मुझे छिपकर उनकी बातें सुनते देख लिया। वे मुझे सोने के लिए कहने ही वाले थे कि हमारे मेहमान ने कहा: “क्यों न आप एलवा को भी बैठने दें?” उस सुझाव से मेरी ज़िंदगी का रुख बदल गया और सच्चे परमेश्‍वर यहोवा के साथ मेरी दोस्ती की शुरुआत हुई।

जल्द ही पिताजी और मैं मसीही सभाओं में जाने लगे। उन्होंने जो सीखा, उसके मुताबिक वे अपनी ज़िंदगी में बदलाव करने लगे। उन्होंने अपने गुस्से पर काबू करना भी सीख लिया। उनमें बदलाव देखकर मेरी माँ और बड़ा भाई, फ्रैंक सभाओं में आने लगे। * हम चारों ने अच्छी तरक्की की और आगे चलकर यहोवा के साक्षियों के तौर पर बपतिस्मा ले लिया। तब से लेकर कई बुज़ुर्ग भाई-बहनों ने ज़िंदगी के अलग-अलग मुकाम पर मुझ पर गहरी छाप छोड़ी है।

मैं कौन-सा करियर चुनती?

शुरू से ही मैं मंडली के बुज़ुर्ग भाई-बहनों के बहुत करीब थी। उनमें से एक थीं ऐलस प्लेस, वही बुज़ुर्ग बहन जिन्होंने पहली बार मेरी माँ को प्रचार किया था। मैं उन्हें दादी मानती थीं। उन्होंने ही मुझे प्रचार काम की तालीम दी और मुझे बपतिस्मा लेने का बढ़ावा दिया। पंद्रह साल की उम्र में मैंने अपना वह लक्ष्य हासिल किया।

मैं पर्सी और मैज [मार्गरेट] डनम नाम के एक बुज़ुर्ग जोड़े के भी बहुत करीब थी। ये दोनों 1930 के दशक में लाटविया में मिशनरियों के तौर पर सेवा करते थे। जब यूरोप में दूसरा विश्‍व युद्ध छिड़ा तब उन्हें ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के बेथेल में सेवा करने का न्यौता मिला। पर्सी और मैज ने मुझमें काफी दिलचस्पी ली। उनकी संगति का मेरे भविष्य पर गहरा असर हुआ। दरअसल, मुझे गणित बहुत पसंद था और मैं गणित की शिक्षक बनना चाहती थी। लेकिन फिर उन्होंने अपनी मिशनरी सेवा के कई मज़ेदार किस्से सुनाए। उनके अनुभवों ने मुझे यह समझने में मदद दी कि दूसरों को बाइबल सिखाना गणित सिखाने से कहीं ज़्यादा खुशी दे सकता है। इस तरह मैंने मिशनरी बनने का फैसला किया।

पर्सी और मैज ने बढ़ावा दिया कि मिशनरी बनने के लिए पहले मैं पायनियर सेवा शुरू करूँ। सन्‌ 1948 में, 16 की उम्र में, मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। मेरी मंडली में, यानी सिडनी शहर की हर्स्टविल मंडली में, दस और जवान भाई-बहन भी पायनियर सेवा कर रहे थे।

अगले चार सालों में मैंने चार नगरों में पायनियर सेवा की। ये नगर न्यू साउथ वेल्स और क्वीन्सलैंड में थे। शुरू-शुरू में मैंने जिन लोगों के साथ बाइबल अध्ययन किया, उनमें से एक थी बेट्टी लॉ (अब उसका नाम है बेट्टी रेमनंट)। बेट्टी दूसरों का बहुत ख्याल रखती थी। वह मुझ से दो साल बड़ी थी। बाद में हम दोनों ने साथ मिलकर, सिडनी से 230 किलोमीटर दूर, पश्‍चिम की ओर, केउरा शहर में पायनियर सेवा की। हालाँकि हम दोनों बहुत कम वक्‍त साथ थे, मगर हम आज भी अच्छे दोस्त हैं।

इसके बाद मुझे खास पायनियर के तौर पर सेवा करने का न्यौता मिला। मुझे नरेन्ड्र नगर भेजा गया, जो केउरा से 220 किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्‍चिम में था। मेरी नयी साथी जॉय लेनॉक्स (अब उसका नाम है जॉय हंटर) एक जोशीली पायनियर थी और वह भी मुझसे दो साल बड़ी थी। उस नगर में बस हम दो ही यहोवा के साक्षी थे। जॉय और मैं, एक जोड़े के साथ रहते थे जिनका नाम था रे और एस्थर आएन्स। वे बहुत मिलनसार और दरियादिल थे। उनका एक बेटा और तीन बेटियाँ थीं और उन सभी को सच्चाई में दिलचस्पी थी। रे और उसका बेटा नगर से दूर एक खेत में काम करते थे जहाँ गेहूँ उगाया जाता था और भेड़ें पाली जाती थीं। एस्थर और उनकी बेटियाँ एक लॉज चलाती थीं। हर रविवार, जॉय और मैं आएन्स परिवार और उनके यहाँ ठहरे दस-बारह आदमियों के लिए भुना हुआ गोश्‍त बनाते। ये लोग रेलवे में काम करनेवाले मज़दूर थे और उन्हें ज़ोरों की भूख लगी होती। उनके लिए खाना बनाने की वजह से हमें किराए में थोड़ी रियायत मिल जाती थी। साफ-सफाई के बाद, हम आएन्स परिवार के साथ मिलकर ज़ायकेदार आध्यात्मिक खाना खाते थे, यानी हफ्ते का प्रहरीदुर्ग अध्ययन करते थे। आगे चलकर रे, एस्थर और उनके चार बच्चों ने सच्चाई अपनायी और वे नरेन्ड्र मंडली के सबसे पहले सदस्य बने।

सन्‌ 1951 में मैं सिडनी शहर में एक अधिवेशन में हाज़िर हुई। वहाँ मिशनरी सेवा में दिलचस्पी रखनेवाले पायनियरों के लिए एक खास सभा रखी गयी थी। एक बड़े से तंबू में हुई इस सभा में 300 से भी ज़्यादा भाई-बहन हाज़िर हुए थे, जिनमें मैं भी एक थी। ब्रुकलिन बेथेल के भाई नेथन नॉर ने वहाँ आए लोगों से बात की और बताया कि खुशखबरी को दुनिया के हर कोने में फैलाना कितना ज़रूरी है। हमने उनका एक-एक शब्द ध्यान से सुना। उस सभा में हाज़िर कई पायनियर आगे चलकर मिशनरी बने और उन्होंने दक्षिण प्रशांत महासागर के द्वीपों और दूसरे इलाकों में प्रचार काम की शुरूआत की। सन्‌ 1952 में ऑस्ट्रेलिया के 16 भाई-बहनों के साथ मुझे भी गिलियड स्कूल की 19वीं क्लास में हाज़िर होने का न्यौता मिला। मेरी खुशी का ठिकाना ना था! मिशनरी सेवा करने का मेरा सपना, सिर्फ 20 साल की उम्र में पूरा होनेवाला था!

खुद को सुधारने की ज़रूरत

गिलियड के भाई-बहनों की संगति और वहाँ मिली तालीम ने न सिर्फ मेरा ज्ञान बढ़ाया और विश्‍वास मज़बूत किया बल्कि मेरी शख्सियत पर भी गहरा असर किया। मैं जवान थी और मैंने अपने लिए कुछ उसूल बना रखे थे। मैं कड़ाई से उनका पालन करती थी और दूसरों से भी ऐसा करने की उम्मीद करती थी। कुछ मामलों में तो मेरा नज़रिया बहुत ही सख्त था। मिसाल के लिए, जब मैंने भाई नॉर को कुछ बेथेल के जवान सदस्यों के साथ बेसबॉल खेलते देखा, तो मैं दंग रह गयी!

हमारे गिलियड के शिक्षकों को सालों का तजुरबा था और उन्हें लोगों की अच्छी परख थी। उन्होंने जल्द ही मेरी कमज़ोरी पहचान ली और मुझे अपनी सोच सुधारने में मदद दी। धीरे-धीरे मैंने समझा कि यहोवा एक कठोर और सख्त परमेश्‍वर नहीं है बल्कि वह एक प्यार करनेवाला परमेश्‍वर है। वह हमसे हद-से-ज़्यादा की माँग नहीं करता। इस मामले में मेरी क्लास के कुछ भाई-बहनों ने भी मेरी मदद की। मुझे याद है कि उनमें से एक ने मुझसे कहा: “एलवा, यहोवा ऊपर एक चाबुक लेकर नहीं बैठा है। खुद के साथ इतनी सख्ती मत बरतो।” उसके इन साफ शब्दों ने मुझ पर गहरा असर किया।

गिलियड के बाद, मुझे और मेरी क्लास के चार और भाई-बहनों को अफ्रीका के नामीबिया देश भेजा गया। जल्द ही हमें कई बाइबल अध्ययन मिल गए। हम पाँच, कुल मिलाकर 80 बाइबल अध्ययन चला रहे थे। मुझे नामीबिया और मिशनरी सेवा दोनों बहुत पसंद थे, मगर मैं अपनी क्लास के एक भाई को दिल दे बैठी थी। इसलिए एक साल नामीबिया में सेवा करने के बाद, मैं अपने मँगेतर के पास स्विट्‌ज़रलैंड चली गयी। वह सर्किट निगरान के तौर पर सेवा कर रहा था और शादी के बाद, मैंने इस काम में उसका साथ दिया।

गहरा सदमा

सर्किट काम में पाँच बेहतरीन साल गुज़ारने के बाद, हमें स्विट्‌ज़रलैंड बेथेल में सेवा करने का न्यौता मिला। वहाँ के बेथेल परिवार में कई तजुरबेकार बुज़ुर्ग भाई-बहन थे। उनके साथ संगति कर पाना मेरे लिए बड़ी खुशी की बात थी।

लेकिन कुछ ही समय बाद, मुझे गहरा सदमा पहुँचा जब मुझे पता चला कि मेरे पति ने मेरे साथ और यहोवा के साथ बेवफाई की है। फिर वह मुझे छोड़कर चला गया। मैं पूरी तरह टूट गयी! अगर मुझे बेथेल परिवार के प्यारे बुज़ुर्ग दोस्तों का सहारा न मिला होता, तो न जाने मैं अपनी ज़िंदगी में आए इस तूफान का सामना कैसे करती। जब मुझे किसी से बात करने का मन होता, तब वे मेरी सुनते और जब मैं अकेली रहना चाहती, तब वे मुझे अकेला छोड़ देते। उनके दिलासा-भरे शब्दों और प्यार-भरी मदद ने मुझे अपना गम सहने की ताकत दी। इस दौरान यहोवा के साथ मेरा रिश्‍ता और भी मज़बूत हो गया।

मैंने वे बातें भी याद कीं जो सालों पहले कुछ दोस्तों ने मुझसे कही थीं। इन बुज़ुर्गों को कई मुश्‍किलों का सामना करने का तजुरबा था। मैज डनहम भी उनमें से एक थी। एक बार उसने मुझसे कहा था: “एलवा, यहोवा की सेवा में तुम्हें बहुत-सी परीक्षाओं का सामना करना पड़ेगा, मगर वे परीक्षाएँ सबसे ज़्यादा मुश्‍किल होंगी जो तुम्हारे अपनों की तरफ से आएँगी। उन परीक्षाओं के दौरान यहोवा के करीब रहना। हमेशा याद रखना कि तुम उसकी सेवा कर रही हो, असिद्ध इंसानों की नहीं!” मैज की इस सलाह ने मुझे कई मुश्‍किल घड़ियों में बहुत मदद दी। मैंने ठान लिया कि मैं अपने पति की गलतियों की वजह से यहोवा के साथ अपना रिश्‍ता कमज़ोर नहीं होने दूँगी।

कुछ समय बाद, मैंने ऑस्ट्रेलिया लौटने का फैसला किया ताकि मैं अपने परिवार के नज़दीक रहकर पायनियर सेवा कर सकूँ। मैं समुंदर के रास्ते, जहाज़ से सफर कर रही थी। उस दौरान हम मुसाफिरों ने साथ मिलकर बाइबल के बारे में कई मज़ेदार चर्चाएँ कीं। इस समूह में आरना जेरडी नाम का एक नॉर्वेजियाई आदमी था। वह बहुत शांत स्वभाव का था और उसे यह चर्चा बहुत पसंद आयी। बाद में आरना मुझसे और मेरे परिवार से मिलने सिडनी आया। उसने बहुत जल्दी तरक्की की और सच्चाई को अपना लिया। सन्‌ 1963 में आरना और मैंने शादी कर ली और दो साल बाद हमारा एक बेटा हुआ जिसका नाम हमने गैरी रखा।

एक और सदमा

आरना, गैरी और मैं अपनी ज़िंदगी से बहुत खुश थे। जल्द ही आरना ने हमारे घर में और कमरे बनवाए ताकि मेरे बुज़ुर्ग माता-पिता हमारे साथ रह सकें। लेकिन शादी के छ: साल बाद, हमारे सामने एक नयी मुश्‍किल आ खड़ी हुई। हमें पता चला कि आरना को मस्तिष्क का कैंसर है। उसे लंबे अरसे तक अस्पताल में रहकर रेडिएशन थेरेपी करवानी पड़ी और इस दौरान मैंने उसकी देखभाल की। उसकी हालत सुधर रही थी, लेकिन बाद में अचानक उसकी तबियत खराब हो गयी और उसे पक्षाघात हुआ। मुझसे कहा गया कि वह सिर्फ कुछ हफ्ते ही जीएगा। लेकिन उसे कुछ नहीं हुआ। आखिरकार वह घर लौट पाया और मैंने दिन-रात उसकी सेवा करके उसे धीरे-धीरे ठीक होने में मदद दी। कुछ समय बाद, वह फिर से चल पाया और मंडली के प्राचीन के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने लगा। वह बहुत खुशमिज़ाज था और उसके मज़ाकिया अंदाज़ ने उसे जल्दी ठीक होने में मदद दी और इस वजह से मेरे लिए लंबे समय तक उसकी देखभाल करना भी आसान हो गया।

कई सालों बाद, सन्‌ 1986 में आरना की तबियत फिर से खराब हो गयी। मेरे माता-पिता की मौत हो चुकी थी इसलिए हम सिडनी से कुछ दूर, खूबसूरत ब्लू माउन्टेंस में बस गए ताकि हम अपने कुछ दोस्तों के करीब रह सकें। बाद में, गैरी ने कैरन नाम की एक अच्छी आध्यात्मिक बहन से शादी की। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि हम चारों साथ रहें। कुछ ही महीनों के अंदर, हम सब एक नए घर में साथ रहने लगे, जो हमारे पुराने घर से कुछ ही दूर था।

अपनी ज़िंदगी के आखिरी 18 महीनों में आरना ने बिस्तर पकड़ लिया था और उसकी देखभाल के लिए किसी-न-किसी को हमेशा उसके साथ रहना होता था। इस दौरान मैं ज़्यादातर घर पर ही रहती थी इसलिए मैं हर रोज़ दो घंटे बाइबल और बाइबल पर आधारित साहित्य पढ़ती। अध्ययन करते वक्‍त मैंने कई ऐसी बातें सीखीं जिनसे मुझे अपने हालात का और अच्छी तरह सामना करने में मदद मिली। हमारी मंडली के कई बुज़ुर्ग भाई-बहन अकसर हमसे मिलने आते। इनमें से कई तो इसी तरह की परीक्षाओं का सामना कर चुके थे। उनसे मिलकर मुझे बहुत तसल्ली और हिम्मत मिलती! अप्रैल 2003 में आरना की मौत हो गयी। उसे दोबारा जी उठने की पक्की आशा थी।

मेरा सबसे बड़ा सहारा

जब मैं जवान थी, तब ज़िंदगी के बारे में मेरे कुछ अपने ही खयाल थे और मैं मानती थी कि सब कुछ वैसा ही होना चाहिए। लेकिन मैंने पाया है कि ज़िंदगी हमेशा वैसी नहीं होती जैसा हम सोचते हैं। उसमें कई उतार-चढ़ाव आते हैं। मेरी ज़िंदगी में दो बड़े हादसे हुए। मेरा एक साथी बेवफा निकला और दूसरे को बीमारी ने मुझसे छीन लिया। लेकिन इस दौरान मुझे कई तरीकों से मार्गदर्शन और दिलासा मिला। लेकिन मेरा सबसे बड़ा सहारा हमेशा से, “अति प्राचीन” परमेश्‍वर यहोवा ही रहा है। (दानि. 7:9) यहोवा से मिली सलाह ने मुझे अपनी शख्सियत को सुधारने और अपनी मिशनरी सेवा से खुशी पाने में मदद दी। जब मुसीबतें आयीं, तब ‘यहोवा की करुणा ने मुझे थाम लिया और उसकी दी हुई शान्ति से मुझ को सुख मिला।’ (भज. 94:18, 19) मेरे अपने परिवार ने भी मुझे काफी प्यार और सहारा दिया है और मुझे ‘विपत्ति के दिन मित्रों’ का साथ मिला। (नीति. 17:17) इन मित्रों में ज़्यादातर तजुरबेकार बुज़ुर्ग थे।

परमेश्‍वर के सेवक अय्यूब ने कहा था, “बुद्धि तो वृद्धों में और समझ लम्बी आयु वालों में पाई जाती है।” (अय्यू. 12:12, न्यू हिंदी ट्रांस्लेशन) मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि ये शब्द सोलह आने सच हैं! तजुरबेकार बुज़ुर्ग भाई-बहनों की सलाह से मुझे मदद मिली है, उनके दिलासे से मुझे सहारा मिला है और उनकी दोस्ती ने मेरी ज़िंदगी को बेहतर बनाया है। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं ऐसे लोगों से दोस्ती कर पायी।

अब मैं 80 साल की हो चुकी हूँ और खुद एक बुज़ुर्ग हूँ। अपने अनुभवों की वजह से मैं दूसरे बुज़ुर्गों के हालात और अच्छी तरह समझ सकती हूँ। मुझे आज भी उनसे मिलना और उनकी मदद करना अच्छा लगता है। मगर मुझे जवानों की संगति भी अच्छी लगती है। उन्हें देखकर मुझमें एक नया जोश भर आता है। आज जब वे मुझसे सलाह या मदद माँगने आते हैं, तो उन्हें सहारा देने में मुझे बेहद खुशी मिलती है।

[फुटनोट]

^ पैरा. 7 एलवा का भाई, फ्रैंक लैमबर्ट ऑस्ट्रेलिया के दूर-दराज़ इलाकों में सेवा करनेवाला एक जोशीला पायनियर बना। सन्‌ 1983 इयरबुक ऑफ जेहोवाज़ विटनेसेज़ के पेज 110-112 में उसके प्रचार काम में हुए एक रोमांचक किस्से का बयान किया गया है।

[पेज 14 पर तसवीर]

जॉय लेनॉक्स के साथ नरेन्ड्र में पायनियर सेवा करते वक्‍त

[पेज 15 पर तसवीर]

सन्‌ 1960 में एलवा, स्विट्‌ज़रलैंड बेथेल परिवार के सदस्यों के साथ

[पेज 16 पर तसवीर]

आरना के साथ, जब वह बीमार था