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जीवन कहानी

यहोवा ने मुझे उसकी मरज़ी पूरी करना सिखाया

यहोवा ने मुझे उसकी मरज़ी पूरी करना सिखाया

मैक्स लॉयड की ज़ुबानी

सन्‌ 1955 की बात है। मैं और मेरा मिशनरी साथी, दक्षिण अमरीका के परागुए देश में सेवा कर रहे थे। एक बार देर रात के वक्‍त हम जिस घर में थे, उसे गुस्से से पागल भीड़ ने घेर लिया। लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे, “हमारा परमेश्‍वर खून का प्यासा है, वह ग्रिंगोज़ का खून चाहता है!” आखिर हम ग्रिंगोज़ (परदेसी) यहाँ पहुँचे कैसे?

मेरी कहानी ऑस्ट्रेलिया से शुरू होती है जहाँ मैं पला-बढ़ा। यही वह जगह है जहाँ यहोवा ने मुझे सिखाना शुरू किया कि मैं उसकी मरज़ी कैसे पूरी कर सकता हूँ। मेरे पिताजी और मेरी माँ इलाके के पादरी से खुश नहीं थे। वह पादरी बाइबल के कुछ हिस्सों के बारे में कहता था कि यह बस मनगढ़ंत कहानियाँ हैं। फिर सन्‌ 1938 में, मेरे पिता की मुलाकात यहोवा के एक साक्षी से हुई जिसने उन्हें दुश्‍मनों (अँग्रेज़ी) नाम की एक किताब दी। इसके करीब एक साल बाद, मेरे माता-पिता ने यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया और बपतिस्मा लिया। तब से यहोवा की मरज़ी के मुताबिक काम करना हमारे परिवार के लिए सबसे ज़रूरी हो गया। इसके बाद मेरी बहन लेसली ने बपतिस्मा लिया, जो मुझसे पाँच साल बड़ी थी, फिर नौ साल की उम्र में यानी 1940 में मैंने बपतिस्मा लिया।

ऑस्ट्रेलिया में, यहोवा के साक्षी बाइबल पर आधारित जो साहित्य छापते और बाँटते थे, उन पर दूसरे विश्‍व युद्ध के शुरू होने के कुछ ही समय बाद रोक लगा दी गयी। इसलिए मैंने बचपन से ही सीखा कि सिर्फ बाइबल का इस्तेमाल करके मैं कैसे समझा सकता हूँ कि मैं जो विश्‍वास करता हूँ उसका आधार क्या है। मैंने स्कूल जाते वक्‍त अपनी बाइबल साथ ले जाने की आदत बना ली, ताकि मैं यह बता सकूँ कि मैं झंडे को सलामी क्यों नहीं करता या देशों के बीच होनेवाले युद्ध में किसी देश का पक्ष क्यों नहीं लेता।—निर्ग. 20:4, 5; मत्ती 4:10; यूह. 17:16; 1 यूह. 5:21.

स्कूल में ज़्यादातर बच्चे मुझसे दोस्ती नहीं करते थे क्योंकि वे कहते थे कि मैं “एक जर्मन जासूस” हूँ। उस ज़माने में, स्कूल में फिल्में दिखायी जाती थीं। फिल्म शुरू होने से पहले, हर किसी को खड़े होकर राष्ट्रगान गाना होता था। लेकिन मैं बैठा रहता था। यह देखकर दो-तीन लड़के मेरे बाल पकड़कर मुझे मेरी सीट से उठाने की कोशिश करते। यह सिलसिला कुछ समय तक चलता रहा। आखिरकार एक दिन, बाइबल पर आधारित अपने विश्‍वास पर डटे रहने की वजह से मुझे स्कूल से बेदखल कर दिया गया। फिर भी मैंने घर पर रहकर पत्राचार के ज़रिए अपनी पढ़ाई जारी रखी।

आखिरकार मैंने अपना लक्ष्य पा लिया

मैंने एक लक्ष्य रखा था कि जब मैं 14 साल का हो जाऊँगा तो मैं पायनियर के तौर पर पूरे समय की सेवा करूँगा। लेकिन जब मेरे माता-पिता ने मुझसे कहा कि पहले मुझे नौकरी करनी चाहिए, तो मैं बहुत निराश हो गया। उन्होंने ज़ोर देकर मुझसे कहा कि मुझे अपने रहने और खाने-पीने का खर्चा खुद उठाना पड़ेगा। मगर उन्होंने मुझसे वादा किया कि जब मैं 18 का हो जाऊँगा, तब मैं पायनियर सेवा कर सकता हूँ। इस वजह से, मैं जो भी पैसा कमाता था उसे लेकर अकसर हमारे बीच बहस होती थी। मैं उनसे ज़िद करता था कि मैं यह पैसा पायनियर सेवा के लिए जमा करूँगा लेकिन वे यह पैसा मुझसे ले लेते थे।

जब पायनियर सेवा करने का समय आया, तो मेरे माता-पिता बैठकर मुझे समझाने लगे कि उन्होंने मुझसे जो पैसा लिया था, वह उन्होंने बचत खाते में जमा किया है। फिर उन्होंने वह सारा पैसा मुझे वापस दे दिया, ताकि मैं कपड़े और पायनियर सेवा के लिए दूसरी ज़रूरी चीज़ें खरीद सकूँ। वे दरअसल मुझे सिखा रहे थे कि मैं अपना खयाल खुद रखूँ न कि दूसरों से इसकी कोई उम्मीद करूँ। आज जब मैं इस बात को याद करता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मेरे माँ-बाप ने मुझे जो तालीम दी थी, वह वाकई बहुत अनमोल साबित हुई।

जैसे-जैसे मैं और लेसली बड़े होते गए, हम पायनियरों के साथ संगति करने लगे, क्योंकि ये भाई-बहन अकसर हमारे घर ठहरते थे और हमें उनके साथ प्रचार में जाना बहुत अच्छा लगता था। हम हर शनिवार-रविवार को पूरा-पूरा दिन घर-घर के प्रचार, सड़क पर गवाही देने और बाइबल अध्ययन चलाने में बिताते थे। उन दिनों मंडली के प्रचारक हर महीने प्रचार में 60 घंटे बिताने का लक्ष्य रखते थे। और मेरी माँ लगभग हर महीने यह लक्ष्य हासिल कर लेती थी। इस तरह उन्होंने लेसली और मेरे लिए एक बढ़िया मिसाल रखी।

तस्मानिया में पायनियर सेवा

पायनियर के तौर पर सेवा करने के लिए सबसे पहले मुझे ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया द्वीप भेजा गया। वहाँ मैं अपनी बहन और उसके पति के साथ मिलकर सेवा करने लगा। लेकिन जल्द ही वे गिलियड स्कूल की 15वीं क्लास में हाज़िर होने के लिए चले गए। मैं बहुत शर्मीला था और इससे पहले मैं कभी घर से दूर नहीं रहा था। इसलिए कुछ लोगों को लगा कि मैं तस्मानिया में तीन महीने से ज़्यादा नहीं टिक पाऊँगा। लेकिन करीब एक साल के अंदर ही यानी 1950 में, मुझे कंपनी सेवक के तौर पर सेवा करने के लिए चुना गया, जिसे आज प्राचीनों के निकाय का संयोजक कहा जाता है। बाद में मुझे खास पायनियर बनाया गया और एक दूसरे जवान भाई को मेरा पायनियर साथी बनाकर भेजा गया।

हमें खास पायनियर बनाकर ताँबे की खानवाले एक ऐसे शहर में भेजा गया जहाँ एक भी साक्षी नहीं था। हम यहाँ बस से दोपहर बाद पहुँचे। उस रात हम एक पुराने-से होटल में रुके। अगले दिन, जब हम घर-घर का प्रचार कर रहे थे, तो हम घर-मालिकों से पूछते कि क्या उनके इलाके में कोई घर किराए पर मिल सकता है। जब दिन ढलने पर था तब एक आदमी ने हमें बताया कि वहाँ के प्रेसबिटेरियन चर्च के पास एक पादरी का मकान खाली है और कहा कि हमें जाकर उस पादरी से बात करनी चाहिए। वह पादरी काफी दोस्ताना स्वभाव का था और उसने अपने घर में हमारे ठहरने का इंतज़ाम कर दिया। हर दिन उस पादरी के घर से प्रचार के लिए निकलना बड़ा अजीब-सा लगता था।

उस इलाके में हमें बढ़िया नतीजे मिल रहे थे। लोगों को हमारे संदेश में काफी दिलचस्पी थी, उनसे हमारी अच्छी चर्चा होती थी। हम वहाँ कई बाइबल अध्ययन शुरू कर पाए। लेकिन जब हमारे काम के बारे में वहाँ की राजधानी के चर्च अधिकारियों को पता चला और यह भी कि यहोवा के साक्षी, पादरी के घर में रह रहे हैं, तो उन्होंने पादरी से कहा कि वह हमें फौरन बाहर निकाल दे। एक बार फिर हमारे पास सिर छिपाने की जगह नहीं रही!

अगले दिन करीब दो-तीन बजे तक प्रचार करने के बाद हम रात गुज़ारने के लिए एक जगह तलाशने लगे। काफी ढूँढ़-ढाँढ़ करने के बाद हमें जो जगह मिली, वह थी स्टेडियम की सीढ़ियाँ जहाँ दर्शक बैठते हैं। इससे अच्छी जगह हम और नहीं ढूँढ़ पाए। हमने वहीं अपने सूटकेस छिपा दिए और फिर से प्रचार करने निकल पड़े। अँधेरा होनेवाला था, लेकिन हमने सोचा कि इस गली में जो थोड़े-बहुत घर रह गए हैं, उन्हें भी पूरा कर लेते हैं। तभी एक घर-मालिक ने हमसे कहा कि हम उसकी ज़मीन के पिछले हिस्से में बने दो कमरेवाले छोटे-से घर में रह सकते हैं।

सर्किट निगरान का काम और गिलियड

पायनियर सेवा करते हुए करीब आठ महीने हो गए थे कि तभी मुझे ऑस्ट्रेलिया के शाखा दफ्तर से एक न्यौता मिला। मुझे सर्किट निगरान के तौर पर सेवा करने के लिए कहा गया। यह सुनकर मैं चौंक गया क्योंकि मैं अभी सिर्फ 20 साल का था। कुछ हफ्ते मुझे सर्किट निगरान के काम की ट्रेनिंग दी गयी। उसके बाद मैं अलग-अलग मंडलियों का दौरा करने लगा और भाई-बहनों का हौसला बढ़ाने लगा। मैं जिन मंडलियों का दौरा करता था, वहाँ के भाई-बहनों के आगे मैं बस एक लड़का ही था। फिर भी, मंडली में क्या छोटे क्या बड़े किसी ने भी मुझे नीची नज़र से नहीं देखा। इसके बजाय सभी ने मेरे काम की कदर की।

एक मंडली से दूसरी मंडली में जाना वाकई अनोखा सफर था! एक हफ्ते मैं बस से सफर करता था, तो दूसरे हफ्ते ट्राम से। कभी गाड़ी से जाता था तो कभी मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर अपना सूटकेस और प्रचार बैग सँभालते हुए। अपने मसीही भाई-बहनों के घर पर रुकना मेरे लिए बेहद खुशी की बात थी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक भाई जो कंपनी सेवक के तौर पर सेवा करता था, मुझे अपने घर ठहराने के लिए बेताब था, जबकि उसका मकान अभी पूरी तरह बना भी नहीं था। उस हफ्ते मेरा बिस्तर नहाने के टब में लगाया गया। इस सबके बावजूद, यह पूरा हफ्ता हम दोनों के लिए बहुत बढ़िया रहा और हमें एक-दूसरे से काफी हौसला मिला!

सन्‌ 1953 में मैंने एक और चौंका देनेवाली खबर सुनी। मुझे गिलियड स्कूल की 22वीं क्लास में हाज़िर होने का न्यौता मिला। यह खबर सुनकर मुझे खुशी तो हुई पर थोड़ी चिंता भी होने लगी। वह इसलिए क्योंकि 30 जुलाई, 1950 को मेरी बहन और उसके पति को गिलियड स्कूल से ग्रैजुएट होने के बाद, पाकिस्तान सेवा करने भेजा गया। और वहाँ करीब एक साल के अंदर ही लेसली बीमार पड़ गयी और उसकी मौत हो गयी। मैं सोचने लगा कि इस हाल में, अगर मैं अपने माँ-बाप से दूर, किसी दूसरे देश जाऊँगा तो उन्हें कैसा लगेगा? मगर उन्होंने मुझसे कहा, “जाओ बेटा, यहोवा तुम्हें जहाँ सेवा करने भेजे वहाँ जाओ।” वहाँ से जाने के बाद मैं अपने पिता को फिर कभी नहीं देख पाया, क्योंकि सन्‌ 1957 में उनकी मौत हो गयी।

अपने माता-पिता की इजाज़त पाकर, मैं पाँच दूसरे भाई-बहनों के साथ जहाज़ पर सवार होकर ऑस्ट्रेलिया से न्यू यॉर्क के लिए निकल पड़ा। यह सफर काफी लंबा था, करीब छ: हफ्तों का। इस दौरान हमने बाइबल पढ़ाई और अध्ययन किया और साथ सफर कर रहे लोगों को गवाही दी। इससे पहले कि हम न्यू यॉर्क के साउथ लैंसिंग शहर पहुँचते, जहाँ हमारा स्कूल होनेवाला था, हम जुलाई 1953 को यैंकी स्टेडियम में रखे गए अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में हाज़िर हुए। इस अधिवेशन में 1,65,829 लोग आए थे!

हमारी गिलियड क्लास में जो 120 विद्यार्थी थे वे दुनिया के अलग-अलग कोने से आए हुए थे। हम सभी को ग्रैजुएशन के दिन तक यह नहीं बताया गया कि हमें सेवा करने के लिए कहाँ भेजा जाएगा। फिर ग्रैजुएशन वाले दिन जैसे ही हमें पता चला कि किसे कौन-से देश में सेवा करने जाना है, हम फौरन दौड़े-दौड़े गिलियड स्कूल की लाइब्रेरी गए। और हम सभी उन देशों के बारे में जानकारी लेने लगे जहाँ हमें जाना था। मुझे परागुए देश में सेवा करने के लिए कहा गया था और मैंने देखा कि परागुए एक ऐसा देश है जिसके इतिहास के पन्‍ने राजनीतिक उथल-पुथल से भरे हुए हैं। वहाँ पहुँचने के कुछ ही दिन बाद, एक रात मैंने कुछ दंगे की आवाज़ सुनी। सुबह होते ही मैंने दूसरे मिशनरियों से पूछा, ‘रात को ये क्या “जश्‍न” मनाया जा रहा था?’ वे मुस्कराए और कहने लगे, “तुमने पहली उथल-पुथल तो देख ली है। अब ज़रा दरवाज़े की तरफ देखो।” चारों तरफ सैनिक-ही-सैनिक थे!

एक घटना जो यादगार बन गयी

एक बार मैं सर्किट निगरान के साथ एक दूर-दराज़ की मंडली का दौरा करने और द न्यू वर्ल्ड सोसाइटी इन एक्शन नाम की फिल्म दिखाने के लिए निकला। वहाँ पहुँचने के लिए हमने पहले रेलगाड़ी से, फिर घोड़े से, बग्गी से और आखिर में बैलगाड़ी से सफर किया। इस तरह आठ-नौ घंटे का सफर तय करने के बाद हम अपनी मंज़िल पर पहुँच गए। हम अपने साथ एक जनरेटर और एक फिल्म प्रोजेक्टर भी लाए थे। अगले दिन हम खेतों में जा-जाकर लोगों को न्यौता देने लगे कि हम रात को एक फिल्म दिखाएँगे, आप सब लोग आइएगा। करीब 15 लोग फिल्म देखने आए।

फिल्म दिखाते अभी लगभग 20 मिनट ही हुए थे कि हमसे कहा गया, जितना जल्दी हो सके हम घर के अंदर चले जाएँ। हमने फटाफट अपना प्रोजेक्टर उठाया और घर के अंदर घुस गए। तभी कुछ आदमी वहाँ आए और धाँय-धाँय अपनी बंदूकें चलाने लगे। वे चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे, “हमारा परमेश्‍वर खून का प्यासा है, वह ग्रिंगोज़ का खून चाहता है!” वहाँ सिर्फ दो ही ग्रिंगोज़ थे, जिनमें से एक मैं था! भीड़ के आदमी घर में घुसने की कोशिश कर रहे थे, मगर जिन लोगों ने फिल्म देखी उन्होंने उन आदमियों को रोका। इसलिए उस वक्‍त तो वे आदमी चले गए, लेकिन सुबह करीब तीन बजे वे विरोधी फिर वापस आए। फिर से वे धाँय-धाँय अपनी बंदूकें चलाने लगे और हमें धमकी देने लगे, ‘जब तुम शहर लौटोगे तब तुम्हें मज़ा चखाएँगे!’

भाइयों ने शेरिफ (एक नगर अधिकारी) से संपर्क किया। फिर वह दोपहर में दो घोड़े लेकर आया ताकि हमें शहर वापस ले जाए। शहर वापस जाते समय रास्ते में जब भी झाड़ियों या पेड़ों का झुरमुट पड़ता, तो वह अधिकारी अपनी बंदूक निकालता और अपना घोड़ा आगे बढ़ाकर उस जगह की छानबीन करता। यह सब देखकर मुझे एहसास हुआ कि इधर-उधर आने-जाने के लिए एक घोड़ा होना बहुत ज़रूरी है। इसलिए बाद में मैंने एक घोड़ा खरीद लिया।

और भी मिशनरी आए

पादरी हमारे काम का लगातार विरोध कर रहे थे, फिर भी खुशखबरी सुनाने के काम में अच्छी तरक्की हो रही थी। सन्‌ 1955 में, परागुए में पाँच और मिशनरी आए। इनमें कनाडा की रहनेवाली, एलसी स्वेनसन नाम की एक जवान बहन भी थी। वह गिलियड स्कूल की 25वीं क्लास से ग्रैजुएट हुई थी। एलसी और मैंने कुछ समय शाखा दफ्तर में काम किया था। इसके बाद उसे दूसरे शहर में सेवा करने भेज दिया गया। उसके माता-पिता ने कभी सच्चाई कबूल नहीं की, न ही उन्होंने एलसी की कोई खास मदद की, फिर भी उसने अपनी ज़िंदगी यहोवा की सेवा में पूरी तरह लगा दी। कुछ समय बाद, यानी 31 दिसंबर, 1957 को मैंने और एलसी ने शादी कर ली और हम दोनों परागुए के दक्षिण भाग में एक मिशनरी घर में जाकर रहने लगे।

हमारे घर में नल का पानी नहीं आता था, इसके बजाय घर के पिछवाड़े में एक कुआँ था। घर में न तो नहाने का फव्वारा था, न ही टॉयलेट, न कपड़े धोने की मशीन, यहाँ तक कि फ्रिज भी नहीं था। इसलिए हम हर दिन ताज़ा खाना लाते थे। लेकिन इस तरह सादगी-भरी ज़िंदगी जीने और वहाँ की मंडली के भाई-बहनों के साथ प्यार-भरा रिश्‍ता होने की वजह से, हमारी शादीशुदा ज़िंदगी के ये दिन खुशियों से भर गए!

सन्‌ 1963 में मैं अपनी माँ से मिलने एलसी के साथ ऑस्ट्रेलिया वापस आया। इसके कुछ ही समय बाद, मेरी माँ को दिल का दौरा पड़ा, शायद इसलिए कि वह दस साल बाद अपने बेटे को देख रही थीं और बहुत खुश थीं। परागुए वापस जाने का दिन जैसे-जैसे पास आ रहा था, हमारी चिंता बढ़ती जा रही थी क्योंकि हमें ज़िंदगी का एक मुश्‍किल फैसला लेना था। क्या हम अपनी माँ को अस्पताल में छोड़ देंगे, यह सोचकर कि कोई उनकी देखभाल कर लेगा और परागुए चले जाएँगे? या फिर हम पूरे समय की सेवा छोड़ देंगे, जो हमारे लिए बहुत अनमोल है और यहीं रहकर अपनी माँ की देखभाल करेंगे? इस बारे में हमने यहोवा से बहुत प्रार्थना की, फिर एलसी और मैंने फैसला किया कि हम यहीं रहकर माँ की देखभाल करेंगे। सन्‌ 1966 में माँ के गुज़र जाने तक हम उनकी देखभाल करते रहे और पूरे समय की सेवा में भी बने रहे।

कई सालों तक ऑस्ट्रेलिया में सर्किट निगरान और ज़िला निगरान की ज़िम्मेदारी निभाना और प्राचीनों के लिए रखे गए राज-सेवा स्कूल में सिखाना वाकई बड़े सम्मान की बात थी। फिर हमारी ज़िंदगी में एक और मोड़ आया। ऑस्ट्रेलिया में जो सबसे पहली शाखा-समिति बनायी गयी, मुझे उसके एक सदस्य के तौर पर सेवा करने के लिए चुना गया। इसके बाद, जब नया शाखा दफ्तर बनाने की ज़रूरत पड़ी, तो मुझे निर्माण-समिति का चेयरमैन बनाया गया। इस निर्माण काम में कई सारे तजुरबेकार और मिल-जुलकर काम करनेवाले लोगों की मदद से एक खूबसूरत शाखा दफ्तर बनकर तैयार हो गया।

इसके बाद मुझे सेवा विभाग में काम करने के लिए कहा गया। यह विभाग एक देश में हो रहे प्रचार काम की देखरेख करता है। मुझे दुनिया की दूसरी शाखाओं का दौरा करने का भी सम्मान मिला। मैं एक ज़ोन निगरान के तौर पर शाखाओं में जाकर भाई-बहनों की मदद करता और उनका हौसला बढ़ाता था। कुछ देशों में हम ऐसे भाई-बहनों से मिले जिन्होंने यहोवा के वफादार रहने और उसकी आज्ञा मानने की वजह से सालों, यहाँ तक कि दशकों जेलों में और यातना शिविरों में गुज़ारे। उनसे मिलकर हमारा विश्‍वास बहुत मज़बूत हुआ।

आज परमेश्‍वर की सेवा में

सन्‌ 2001 में जब हम ज़ोन के दौरे से लौटकर आए, जो काफी थका देनेवाला था, तो मुझे एक खत मिला। उसमें लिखा था कि हमें न्यू यॉर्क शहर के ब्रुकलिन जाना है और वहाँ अमरीका की शाखा-समिति के एक सदस्य के तौर पर मुझे सेवा करनी है। यह समिति हाल ही में बनी थी। मैंने और एलसी ने इस बारे में बहुत प्रार्थना की और काफी सोचा। फिर हमने खुशी-खुशी यह न्यौता कबूल कर लिया। हमें ब्रुकलिन में सेवा करते हुए आज 11 साल से भी ज़्यादा समय हो गया है।

मैं इस बात से बेहद खुश हूँ कि मुझे एक ऐसी पत्नी मिली, जिससे यहोवा जो भी करने के लिए कहता है, वह खुशी-खुशी करने को तैयार हो जाती है। मेरी और एलसी की उम्र आज 80 से ऊपर है और हमारी सेहत अभी-भी काफी अच्छी है। हम बेसब्री से उस समय का इंतज़ार कर रहे हैं जब यहोवा अपने सभी सेवकों को हमेशा-हमेशा तक सिखाता रहेगा और उन्हें बेशुमार आशीषें देगा जो लगातार उसकी मरज़ी पूरी करते हैं।

[पेज 19 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

एक हफ्ते मैं बस से सफर करता था, तो दूसरे हफ्ते ट्राम से। कभी गाड़ी से जाता था तो कभी मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर अपना सूटकेस और प्रचार बैग सँभालते हुए

[पेज 21 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

हम बेसब्री से उस समय का इंतज़ार कर रहे हैं जब यहोवा अपने सभी सेवकों को हमेशा-हमेशा तक सिखाता रहेगा

[पेज 18 पर तसवीरें]

बायीं तरफ: ऑस्ट्रेलिया में सर्किट काम के दौरान

दायीं तरफ: मैं अपने माता-पिता के साथ

[पेज 20 पर तसवीर]

31 दिसंबर, 1957 में, हमारी शादी के दिन