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मुश्‍किलों को दें मात, हिम्मत के साथ

मुश्‍किलों को दें मात, हिम्मत के साथ

“परमेश्‍वर हमारा शरणस्थान और बल है, संकट में अति सहज से मिलनेवाला सहायक।”—भज. 46:1.

1, 2. कई लोगों ने किन मुश्‍किलों का सामना किया है, लेकिन हममें से हरेक क्या चाहता है?

 आज इंसान की ज़िंदगी मुश्‍किलों के भँवर में फँसी हुई है। पूरी धरती पर एक-के-बाद-एक कहर बरपते ही जा रहे हैं। ऐसा लगता है मानो भूकंप, सुनामी, आग, बाढ़, ज्वालामुखी, बवंडर, आंधी-तूफान, सबने मिलकर इंसान को तबाह करने की कसम खा ली हो। ऊपर से इंसान की पारिवारिक समस्याएँ और उसकी खुद की परेशानियाँ उसका दुख और भी बढ़ा रही हैं। वह डर और खौफ के साए में जी रहा है। बाइबल कितना सच कहती है, हर इंसान “समय और संयोग” के वश में है।—सभो. 9:11.

2 ऐसे मुश्‍किल और दर्दनाक हालात के बावजूद, परमेश्‍वर के लोग खुशी-खुशी उसकी सेवा करते आए हैं। फिर भी जैसे-जैसे इस व्यवस्था का अंत करीब आ रहा है, हममें से हरेक, ऐसे किसी भी हालात का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहता है जो भविष्य में खड़े हो सकते हैं। तो फिर मुसीबतें आने पर हम निराश होने से कैसे बच सकते हैं? इनका सामना करने के लिए हम कैसे हिम्मत जुटा सकते हैं?

उनसे सीखिए जिन्होंने हिम्मत से काम लिया

3. मुसीबत आने पर हम रोमियों 15:4 के मुताबिक किस बात से दिलासा पा सकते हैं?

3 आज ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को मुश्‍किल हालात का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन मुश्‍किलों का आना कोई नयी बात नहीं है। पहले भी लोगों को समस्याएँ झेलनी पड़ी थीं। आइए देखें कि हम बीते ज़माने के परमेश्‍वर के उन सेवकों से क्या सीख सकते हैं जिन्होंने मुसीबतों के दौर में हिम्मत से काम लिया।—रोमि. 15:4.

4. दाविद को किन दुख-तकलीफों का सामना करना पड़ा? उसे किस बात से मदद मिली?

4 दाविद को लीजिए। एक राजा उसकी जान लेने पर तुला हुआ था। दुश्‍मनों ने उस पर हमला किया, उसकी पत्नियों को बंदी बना लिया गया। उसकी सेना के कुछ लोगों ने, उसके दोस्तों ने, यहाँ तक कि उसके परिवारवालों ने उसके साथ विश्‍वासघात किया। कई बार उसे निराशा और मायूसी ने आ घेरा। (1 शमू. 18:8, 9; 30:1-5; 2 शमू. 17:1-3; 24:15, 17; भज. 38:4-8) बाइबल में दर्ज़ दाविद की ज़िंदगी का ब्यौरा दिखाता है कि इन दुख-तकलीफों ने उसे कैसे खून के आँसू रुलाए होंगे। लेकिन इन सबकी वजह से यहोवा पर उसका विश्‍वास कमज़ोर नहीं हुआ, बल्कि उसने कहा, “यहोवा मेरे जीवन का दृढ़ गढ़ ठहरा है, मैं किस का भय खाऊं?”—भज. 27:1; भजन 27:5, 10 पढ़िए।

5. किस बात ने अब्राहम और सारा को दुख-तकलीफों के बावजूद खुश रहने में मदद दी?

5 अब्राहम और सारा ने अपनी ज़्यादातर ज़िंदगी तंबुओं में गुज़ारी। वे पराए देशों में परदेसियों की तरह रहे। उनकी ज़िंदगी हमेशा फूलों की सेज नहीं थी। उन्हें अकाल, आस-पास के देशों से खतरों और ऐसी ही कई मुश्‍किलों का सामना करना पड़ा। मगर उन्होंने हिम्मत से काम लिया और धीरज धरा। (उत्प. 12:10; 14:14-16) किस बात ने उन्हें ऐसा करने में मदद दी? परमेश्‍वर का वचन बताता है कि अब्राहम “एक ऐसे शहर के इंतज़ार में था, जो सच्ची बुनियाद पर खड़ा है, जिसका निर्माण करनेवाला और रचनेवाला परमेश्‍वर है।” (इब्रा. 11:8-10) अब्राहम और सारा अपनी दुख-तकलीफों के बारे में सोच-सोचकर निराश नहीं हुए। इसके बजाय, उन्होंने अपना ध्यान परमेश्‍वर के वादों पर लगाए रखा।

6. हम अय्यूब की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?

6 अय्यूब पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। सोचिए उस वक्‍त उसके दिल पर क्या बीत रही होगी, जब एक-के-बाद-एक उसका सबकुछ लुट गया। (अय्यू. 3:3, 11) ऊपर से वह यह भी नहीं जानता था कि उसके साथ यह सब क्यों हो रहा है। फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसने अपनी खराई बनाए रखी और परमेश्‍वर पर अपना विश्‍वास कमज़ोर नहीं होने दिया। (अय्यूब 27:5 पढ़िए।) हमारे लिए क्या ही बढ़िया मिसाल!

7. परमेश्‍वर की सेवा के दौरान, पौलुस को किन मुश्‍किलों का सामना करना पड़ा? इस सेवा में लगे रहने के लिए उसे किस बात से हिम्मत मिली?

7 अब प्रेषित पौलुस की मिसाल पर गौर कीजिए। वह ‘शहर के खतरों में, वीराने और समंदर के खतरों में’ रहा। उसने ‘भूख और प्यास में, ठंड और उघाड़े में दिन बिताए।’ पौलुस यह भी कहता है, कई बार ऐसा हुआ कि जिस जहाज़ पर वह था, वह टूट गया। शायद इसी वजह से एक बार उसे ‘एक रात और एक दिन समंदर के बीच काटना’ पड़ा। (2 कुरिं. 11:23-27) इस सबके बावजूद, उसने सही नज़रिया बनाए रखा। एक बार जब परमेश्‍वर की सेवा करने की वजह से उसे मौत का सामना करना पड़ा, तो उसने लिखा, “यह इसलिए हुआ कि हमारा भरोसा खुद पर न हो बल्कि उस परमेश्‍वर पर हो जो मरे हुओं को जी उठाता है। उसने हमें मौत के बड़े खतरे से बचाया है और बचाएगा।” (2 कुरिं. 1:8-10) ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें पौलुस की तरह इतनी सारी मुश्‍किलों से गुज़रना पड़ा हो। लेकिन हममें से कई लोग कभी-कभी पौलुस के जैसा दर्द ज़रूर महसूस करते हैं। पौलुस ने जिस तरह हिम्मत से काम लिया, उससे हम काफी दिलासा पा सकते हैं।

मुसीबतें आने पर हिम्मत मत हारिए

8. आज दुनिया में जो समस्याएँ हैं, उनका हम पर क्या असर हो सकता है? उदाहरण देकर समझाइए।

8 आज दुनिया पर विपत्तियों का कहर बढ़ता ही जा रहा है। इंसान को तमाम चुनौतियों और दबाव का सामना करना पड़ता है। इससे कइयों को लगता है कि अब सब उनकी बरदाश्‍त से बाहर हो गया है। कुछ मसीहियों ने भी ऐसा ही महसूस किया है। लेनी * नाम की एक बहन अपने पति के साथ ऑस्ट्रेलिया में खुशी-खुशी पूरे समय की सेवा कर रही थी। लेकिन जब उसे पता चला कि उसे स्तन कैंसर है तो मानो उस पर बिजली गिर पड़ी। वह कहती है, “इलाज की वजह से मेरी हालात बहुत खराब हो गयी थी और मैं आत्म-सम्मान खो बैठी।” ऊपर से उसे अपने पति की देखभाल भी करनी थी, क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ था। अगर हम कभी ऐसे हालात में पड़ जाते हैं, तो हम क्या कर सकते हैं?

9, 10. (क) हमें शैतान को क्या नहीं करने देना चाहिए? (ख) प्रेषितों 14:22 में बयान की गयी हकीकत का सामना करने में किस तरह की सोच हमारी मदद कर सकती है?

9 हमें याद रखना चाहिए कि हम पर जब मुसीबतें आती हैं, तो शैतान हमारे बुरे हालात का फायदा उठाकर हमारा विश्‍वास कमज़ोर करना चाहता है, वह हमारी खुशी छीनना चाहता है। लेकिन हमें शैतान को ऐसा नहीं करने देना चाहिए। नीतिवचन 24:10 कहता है, “यदि तू विपत्ति के समय साहस छोड़ दे, तो तेरी शक्‍ति बहुत कम है।” अभी हमने बाइबल के जिन उदाहरणों पर चर्चा की, उन पर और ऐसे ही दूसरे उदाहरणों पर मनन करने से हमें मुसीबतों का सामना करने की हिम्मत मिल सकती है।

10 हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम सभी समस्याएँ दूर नहीं कर सकते। दरअसल, हमें यह मानकर चलना चाहिए कि हम पर कभी भी कोई मुसीबत आ सकती है। (2 तीमु. 3:12) प्रेषितों 14:22 कहता है, “हमें बहुत तकलीफें झेलकर ही परमेश्‍वर के राज में दाखिल होना है।” इसलिए मुसीबतें आने पर निराश होने के बजाय, हमें यह सोचना चाहिए कि ये हमारे लिए हिम्मत दिखाने के मौके हैं। ऐसा करके आप दिखाएँगे कि आपको विश्‍वास है कि परमेश्‍वर आपकी मदद कर सकता है।

11. अगर हम ज़िंदगी की समस्याओं से निराश नहीं होना चाहते, तो हमें क्या करना चाहिए?

11 हमें अपनी ज़िंदगी की अच्छी बातों के बारे में सोचते रहना चाहिए। परमेश्‍वर का वचन बताता है, “मन आनन्दित होने से मुख पर भी प्रसन्‍नता छा जाती है, परन्तु मन के दुःख से आत्मा निराश होती है।” (नीति. 15:13) डॉक्टरों ने पाया है कि अगर एक बीमार इंसान सोचता है कि वह ठीक हो जाएगा, तो उसे काफी फायदा होता है। कई मरीज़ों को जब दवाई के रूप में चीनी की गोलियाँ दी गयीं, तो उन्हें काफी राहत मिली, सिर्फ इसलिए कि उन्हें लगा उनका इलाज किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ, जब मरीज़ों को बताया गया कि ये गोलियाँ खाने से उन पर बुरा असर हो सकता है तो इस बारे में सोचकर उनकी तबियत और खराब हो गयी। उसी तरह, अगर हम ज़िंदगी की उन बातों के बारे में सोचते रहेंगे जिन पर हमारा कोई बस नहीं, तो निराशा ही हमारे हाथ लगेगी। लेकिन हम यहोवा के कितने शुक्रगुज़ार हैं कि वह हमें “चीनी की गोलियाँ” नहीं देता, यानी हमें झूठा दिलासा नहीं देता, बल्कि मुसीबत आने पर वह सचमुच हमारी मदद करता है। वह अपने वचन के ज़रिए हमारा हौसला बढ़ाता, भाई-बहनों के ज़रिए हमें सहारा देता और अपनी पवित्र शक्‍ति के ज़रिए हमें ताकत देता है। इन बातों के बारे में सोचकर हमें खुशी मिल सकती है। अपनी ज़िंदगी में हुई बुरी घटनाओं के बारे में सोचने के बजाय, अपने हालात को सुधारने के लिए कुछ कारगर कदम उठाइए, साथ ही अपनी ज़िंदगी की अच्छी बातों के बारे में सोचिए।—नीति. 17:22.

12, 13. (क) विपत्तियों का सामना करने के लिए परमेश्‍वर के सेवकों को किस बात से मदद मिली है? उदाहरण देकर समझाइए। (ख) विपत्ति के आने पर यह कैसे ज़ाहिर होता है कि इंसान की ज़िंदगी में क्या बात सबसे ज़्यादा मायने रखती है?

12 हाल के सालों में कुछ देशों में प्राकृतिक विपत्तियों ने ज़बरदस्त तबाही मचायी। मगर गौर करनेवाली बात यह है कि हमारे भाइयों ने ऐसे हालात में भी धीरज धरा जबकि ऐसा करना उनके लिए आसान नहीं था। सन्‌ 2010 की शुरूआत में चिली में ऐसा ज़बरदस्त भूकंप और सुनामी आयी जिससे हमारे बहुत-से भाइयों के घर और उनका साज़ो-सामान बह गया। कुछ भाइयों की रोज़ी-रोटी छिन गयी। ऐसे हालात में भी भाई-बहन यहोवा की सेवा करने में पूरे जोश से लगे रहे। सैमुएल नाम का भाई जिसका घर ढह गया, कहता है, “उस मुश्‍किल हालात में भी मेरी पत्नी और मैंने सभाओं में जाना और प्रचार करना नहीं छोड़ा। मेरा मानना है कि इस अच्छी आदत की वजह से ही हम निराश नहीं हुए।” यह विपत्ति उन्हें और दूसरे बहुत-से भाई-बहनों को यहोवा की सेवा करने से रोक नहीं पायी।

13 सितंबर 2009 में फिलिपाईन्स के मनिला शहर में मूसलाधार बारिश हुई। इससे आयी बाढ़ ने शहर के करीब 80 प्रतिशत हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया। एक अमीर आदमी जिसका काफी कुछ लुट गया, कहता है, “इस बाढ़ ने क्या अमीर, क्या गरीब किसी को नहीं बख्शा, सभी को इसकी मार सहनी पड़ी।” इससे हमें यीशु की यह बेहतरीन सलाह याद आती है, “अपने लिए स्वर्ग में धन जमा करो, जहाँ न तो कीड़ा, न ही ज़ंग उसे खाते हैं और जहाँ न तो चोर सेंध लगाकर चुराते हैं।” (मत्ती 6:20) धन-संपत्ति ऐसी चीज़ है जो हमारे हाथ से कभी भी जा सकती है। जो लोग इसे अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देते हैं, उन्हें अकसर निराशा का ही मुँह देखना पड़ता है। इसलिए कितना अच्छा होगा कि हम यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दें, क्योंकि उसके साथ हमारी दोस्ती हमेशा कायम रह सकती है, फिर चाहे दुनिया पर कोई भी आफत क्यों न आ जाए।—इब्रानियों 13:5, 6 पढ़िए।

हिम्मत से काम लेने की वजह

14. हिम्मत से काम लेने की हमारे पास क्या वजह है?

14 यीशु ने अपने चेलों से कहा था कि उसकी मौजूदगी के दौरान मुश्‍किलें आएँगी, मगर उसने यह भी कहा, “दहशत न खाना।” (लूका 21:9) जी हाँ, हम हिम्मत से काम ले सकते हैं क्योंकि हमारे साथ हमारा राजा यीशु मसीह और पूरे विश्‍व का सृष्टिकर्ता यहोवा है। पौलुस ने तीमुथियुस का हौसला बढ़ाते हुए कहा, “परमेश्‍वर ने हमें जो मन का रुझान दिया है वह कायरता का नहीं, बल्कि शक्‍ति का और प्यार का और स्वस्थ मन रखने का रुझान है।”—2 तीमु. 1:7.

15. परमेश्‍वर के कुछ सेवकों ने किस तरह उस पर अपना भरोसा ज़ाहिर किया? हम उनकी तरह हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं?

15 गौर कीजिए कि परमेश्‍वर के कुछ सेवकों ने किस तरह उस पर अपना भरोसा ज़ाहिर किया। दाविद ने कहा, “यहोवा मेरा बल और मेरी ढाल है; उस पर भरोसा रखने से मेरे मन को सहायता मिली है; इसलिये मेरा हृदय प्रफुल्लित है।” (भज. 28:7) पौलुस ने अपना मज़बूत विश्‍वास दिखाते हुए कहा, “इन सारी मुसीबतों में से हम उसके ज़रिए शानदार जीत हासिल करते हुए निकलते हैं जिसने हमसे प्यार किया।” (रोमि. 8:37) उसी तरह यीशु ने अपनी गिरफ्तारी और मौत से पहले जो कहा उससे साफ ज़ाहिर हुआ कि उसका परमेश्‍वर के साथ मज़बूत रिश्‍ता है। उसने कहा, “मैं अकेला नहीं हूँ क्योंकि पिता मेरे साथ है।” (यूह. 16:32) परमेश्‍वर के इन सेवकों की बातों से क्या ज़ाहिर होता है? यही कि उन सभी को यहोवा पर पूरा भरोसा था। अगर हम भी परमेश्‍वर पर पूरा भरोसा रखें, तो हम किसी भी मुश्‍किल का सामना करने की हिम्मत जुटा पाएँगे।—भजन 46:1-3 पढ़िए।

यहोवा के इंतज़ामों से फायदा पाइए, हिम्मत से काम लेते रहिए

16. हमारे लिए परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन करना ज़रूरी क्यों है?

16 हमें खुद पर भरोसा रखने से नहीं, बल्कि परमेश्‍वर को जानने और उस पर भरोसा रखने से हिम्मत मिलती है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम परमेश्‍वर के लिखित वचन बाइबल का नियमित तौर पर अध्ययन करें। एक बहन जो निराशा से जूझ रही है, बताती है कि किस बात से उसे मदद मिलती है, “मैं बाइबल से दिलासा देनेवाली आयतें बार-बार पढ़ती हूँ।” क्या हम विश्‍वासयोग्य दास की हिदायतें मानते हुए हर हफ्ते पारिवारिक उपासना करते हैं? परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन करने से हम भजनहार के जैसा नज़रिया रख पाएँगे जिसने कहा, “अहा! मैं तेरी व्यवस्था में कैसी प्रीति रखता हूं! दिन भर मेरा ध्यान उसी पर लगा रहता है।”—भजन 119:97.

17. (क) हिम्मत बनाए रखने के लिए यहोवा ने और क्या इंतज़ाम किया है? (ख) हमारी पत्रिकाओं में दी किसी जीवन कहानी से आपको कैसे मदद मिली है?

17 परमेश्‍वर बाइबल पर आधारित किताबें-पत्रिकाएँ भी मुहैया कराता है, जिन्हें पढ़ने से यहोवा पर हमारा भरोसा बढ़ता है। बहुत-से भाई-बहनों को हमारी पत्रिकाओं में दी जीवन कहानियों से काफी मदद मिली है। एशिया में रहनेवाली एक बहन बायपोलर मूड डिसऑर्डर (एक तरह की निराशा) की शिकार है। उसे एक ऐसे भाई की जीवन कहानी पढ़कर बहुत हौसला मिला, जो पहले मिशनरी था और जिसे वही बीमारी थी। फिर भी वह वफादारी से यहोवा की सेवा करता रहा। बहन लिखती है, ‘उस भाई की जीवन कहानी पढ़ने से मुझे अपनी बीमारी को समझने में मदद मिली और आशा की किरण नज़र आयी।’

18. हमें क्यों प्रार्थना में लगे रहना चाहिए?

18 प्रार्थना से हमें हर तरह के हालात में मदद मिल सकती है। प्रेषित पौलुस ने इसकी अहमियत बताते हुए कहा, “किसी भी बात को लेकर चिंता मत करो, मगर हर बात में प्रार्थना और मिन्‍नतों और धन्यवाद के साथ अपनी बिनतियाँ परमेश्‍वर को बताते रहो। और परमेश्‍वर की वह शांति जो हमारी समझने की शक्‍ति से कहीं ऊपर है, मसीह यीशु के ज़रिए तुम्हारे दिल के साथ-साथ तुम्हारे दिमाग की सोचने-समझने की ताकत की हिफाज़त करेगी।” (फिलि. 4:6, 7) क्या हम मुश्‍किलों का हिम्मत से सामना करने के लिए इस इंतज़ाम का पूरा-पूरा फायदा उठाते हैं? ब्रिटेन में रहनेवाला ऐलिक्स नाम का एक भाई लंबे समय से निराशा से जूझ रहा है। वह कहता है, “जिस बात से मुझे सबसे ज़्यादा मदद मिली, वह है प्रार्थना के ज़रिए यहोवा से बात करना और लगातार उसका वचन पढ़कर उसकी सुनना।”

19. मसीही सभाओं में जाने के बारे में हमारा क्या नज़रिया होना चाहिए?

19 हमारी मदद के लिए एक और इंतज़ाम है सभाओं में भाई-बहनों की संगति। एक भजनहार ने लिखा, “मेरा प्राण यहोवा के आंगनों की अभिलाषा करते करते मूर्छित हो चला।” (भज. 84:2) क्या हम भी ऐसा ही महसूस करते हैं? लेनी, जिसका पहले ज़िक्र किया गया है बताती है कि मसीही संगति के बारे में वह क्या सोचती है। वह कहती है, “मुझे हर हाल में मसीही सभाओं में जाना-ही-जाना था। मैं जानती थी कि अगर मैं अपने हालात का सामना करने के लिए यहोवा से मदद चाहती हूँ, तो मुझे वहाँ जाना ही होगा।”

20. प्रचार काम में हिस्सा लेने से हमें कैसे मदद मिलती है?

20 ज़ोर-शोर से प्रचार काम में हिस्सा लेने से भी हमें हिम्मत मिलती है। (1 तीमु. 4:16) ऑस्ट्रेलिया में रहनेवाली एक बहन जिसने बहुत-सी तकलीफों का सामना किया, कहती है, “मैं प्रचार काम नहीं करना चाहती थी, मगर एक प्राचीन ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके साथ प्रचार में जाना चाहूँगी। मैं मान गयी। ज़रूर इसके पीछे यहोवा का ही हाथ होगा। जब भी मैं प्रचार काम में हिस्सा लेती, मुझे बहुत खुशी मिलती।” (नीति. 16:20) बहुत-से लोगों ने पाया है कि जब वे दूसरों को यहोवा पर विश्‍वास करने में मदद देते हैं, तो उनका अपना विश्‍वास भी मज़बूत होता है। इस तरह वे अपनी मुश्‍किलों पर ध्यान देने के बजाय, ज़्यादा अहमियत रखनेवाली बातों पर ध्यान लगाए रख पाते हैं।—फिलि. 1:10, 11.

21. मुश्‍किलें आने पर भी हम किस बात का यकीन रख सकते हैं?

21 यहोवा ने ऐसे बहुत से इंतज़ाम किए हैं, जिनकी मदद से आज हम मुश्‍किलों का हिम्मत से सामना कर सकते हैं। अगर हम इन सभी इंतज़ामों का पूरा-पूरा फायदा उठाएँ, हिम्मत से काम लेनेवाले परमेश्‍वर के सेवकों के उदाहरण पर मनन करें और उनकी मिसाल पर चलें, तो यकीनन हम मुश्‍किलों का सामना कर पाएँगे। जैसे-जैसे इस व्यवस्था का अंत करीब आ रहा है, हम पर बहुत-सी मुश्‍किलें आ सकती हैं, फिर भी हम पौलुस की तरह महसूस कर सकते हैं, जिसने कहा, “हम गिराए तो जाते हैं, मगर नाश नहीं किए जाते। . . . हम हार नहीं मानते।” (2 कुरिं. 4:9, 16) जी हाँ, हम यहोवा की मदद से मुश्‍किलों का हिम्मत से सामना कर सकते हैं।—2 कुरिंथियों 4:17, 18 पढ़िए।

^ पैरा. 8 कुछ नाम बदल दिए गए हैं।