बुद्धिमानी से निजी फैसले लीजिए
“तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना।”—नीति. 3:5.
1, 2. क्या आपको फैसले लेना पसंद है? आपने अपनी ज़िंदगी में जो फैसले लिए हैं, उनके बारे में आपको कैसा लगता है?
हर दिन हमें न जाने कितने ही फैसले लेने होते हैं। आपको फैसले लेने के बारे में कैसा महसूस होता है? कुछ लोग अपने फैसले खुद लेने के लिए बेताब रहते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने फैसले खुद लेने का हक है। उन्हें यह कतई पसंद नहीं कि कोई और उनके लिए फैसले ले। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ज़रूरी फैसले लेने के नाम से ही घबराते हैं। दूसरे सही फैसला लेने के लिए किताबों या सलाहकारों की मदद लेते हैं, यहाँ तक कि सही सलाह पाने की कोशिश में खूब पैसा बहा देते हैं।
2 लेकिन हममें से ज़्यादातर लोगों को यह एहसास है कि हालाँकि कुछ मामले ऐसे हैं जो हमारे दायरे से बाहर हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं कर सकते, मगर कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें हम अपनी मरज़ी से फैसले ले सकते हैं। (गला. 6:5) फिर भी, हम इस बात को कबूल करते हैं कि ज़रूरी नहीं कि हमारा हरेक फैसला सही या फायदेमंद हो।
3. सही फैसले लेने के लिए हमें क्या निर्देश दिए गए हैं? फैसला लेना हमेशा आसान क्यों नहीं होता?
3 यहोवा के सेवक होने के नाते, हमें इस बात की खुशी है कि ज़िंदगी से जुड़े कई ज़रूरी मामलों पर उसने हमें साफ निर्देश दिए हैं। हम जानते हैं कि अगर हम उसके निर्देश मानें, तो हम ऐसे फैसले ले पाएँगे जिससे यहोवा भी खुश होगा और हमें भी फायदा होगा। फिर भी शायद हमें कभी-कभी ऐसी मुश्किलों और हालात का सामना करना पड़े, जिनके बारे में परमेश्वर के वचन में साफ-साफ निर्देश नहीं दिए गए हैं। ऐसे में हम फैसले कैसे ले सकते हैं? उदाहरण के लिए, बाइबल कहती है कि हमें चोरी नहीं करनी चाहिए। (इफि. 4:28) लेकिन हम चोरी किसे कहेंगे? क्या चुराई गयी चीज़ की कीमत से तय होगा कि वह चोरी कहलाएगी या नहीं? अगर चोरी करने के पीछे एक व्यक्ति का इरादा नेक हो, क्या तब भी वह चोरी कहलाएगी? अगर किसी मामले के बारे में यह साफ-साफ न बताया गया हो कि क्या सही है और क्या गलत, तो हम सही फैसला कैसे लेंगे? फैसला करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
स्वस्थ मन से फैसला लीजिए
4. जब हम कोई फैसला लेते हैं, तो हमें कभी-कभी क्या सुझाव दिया जाता है?
4 जब हम अपने किसी भाई या बहन को बताते हैं कि हम एक बड़ा फैसला लेनेवाले हैं, तो हो सकता है वह भाई या बहन हमसे कहे कि हम सोच-समझकर फैसला लें। यह वाकई बहुत अच्छा सुझाव है। बाइबल भी हमें खबरदार करती है कि हम जल्दबाज़ी में कोई भी फैसला न करें: “उतावली करनेवाले को केवल घटती होती है।” (नीति. 21:5) मगर सोच-समझकर, या जैसे बाइबल बताती है, स्वस्थ मन से फैसला करने का क्या मतलब है? क्या इसका यही मतलब है कि हम फैसला लेने से पहले वक्त निकालकर उस बारे में गहराई से सोचें, हालात का सही-सही जायज़ा लें और उस मामले से जुड़ी सारी बातों को समझने की कोशिश करें? बेशक ये बातें ज़रूरी हैं, मगर स्वस्थ मन से फैसला करने में और भी बहुत कुछ शामिल है।—रोमि. 12:3; 1 पत. 4:7.
5. हमारा मन पूरी तरह से स्वस्थ क्यों नहीं है?
5 हम सभी जन्म से ही पापी और असिद्ध हैं। इसलिए हममें से ऐसा कोई नहीं जिसका मन पूरी तरह से स्वस्थ हो। न तो हमारे पास सिद्ध शरीर है, न ही सिद्ध दिमाग। (भज. 51:5; रोमि. 3:23) साथ ही, हममें से कई लोग एक वक्त पर ऐसे थे, जिनके मनों को शैतान ने ‘अंधा’ कर दिया था, यानी एक वक्त पर हम यहोवा और उसके स्तरों से अनजान थे। (2 कुरिं. 4:4; तीतु. 3:3) इसलिए अगर हम सही-गलत के अपने ही ठहराए स्तरों के मुताबिक फैसले लें, तो भले ही हम फैसला लेने से पहले कितना ही क्यों न सोचें, हमारा फैसला गलत हो सकता है।—नीति. 14:12.
6. स्वस्थ मन पैदा करने में क्या बात हमारी मदद कर सकती है?
6 हालाँकि हम असिद्ध हैं, मगर स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता, यहोवा हर तरह से सिद्ध है। (व्यव. 32:4) और उसने हमें अपनी सोच बदलने और स्वस्थ मन पैदा करने के लिए जो ज़रूरी है, वह सबकुछ दिया है। (2 तीमुथियुस 1:7 पढ़िए।) मसीही होने के नाते, हम सही तरह से सोचना, तर्क करना और पेश आना चाहते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपनी सोच और भावनाएँ काबू में रखें और यहोवा की तरह सोचने, महसूस करने और पेश आने की कोशिश करें।
7, 8. एक अनुभव बताइए जो दिखाता है कि हम तनाव या समस्याओं के बावजूद भी सही फैसला ले सकते हैं।
7 एक उदाहरण पर गौर कीजिए। विदेश जाकर बसनेवाले कुछ लोगों में यह एक आम बात है कि वे अपने नए जन्मे बच्चे को अपने देश, अपने रिश्तेदारों के पास भेजते हैं, ताकि वे उस बच्चे की देखभाल करें और बच्चे के माँ-बाप विदेश में ही रहकर काम करें और पैसे कमाएँ। * एक बार विदेश में रहनेवाली एक स्त्री ने एक प्यारे-से लड़के को जन्म दिया। उसी दौरान, उसने बाइबल का अध्ययन करना शुरू किया और अच्छी तरक्की करने लगी। दोस्त और रिश्तेदार उस पर और उसके पति पर दबाव डालने लगे कि रिवाज़ के मुताबिक वे भी बच्चे को अपने देश अपने दादा-दादी के पास भेजें। मगर बाइबल अध्ययन करने पर पत्नी ने सीखा कि बच्चे की परवरिश करने की ज़िम्मेदारी परमेश्वर ने माँ-बाप को दी है। (भज. 127:3; इफि. 6:4) अब उसे क्या करना चाहिए? क्या उसे भी रिवाज़ के मुताबिक बच्चे को दादा-दादी के पास भेज देना चाहिए, क्योंकि सभी का मानना है कि यही सही है? या क्या उसे बाइबल की सलाह माननी चाहिए, फिर चाहे उसे कम पैसों में गुज़ारा करना पड़े या दूसरों के ताने सहने पड़ें? अगर आप इस स्त्री की जगह होते, तो आप क्या करते?
8 दूसरों के दबाव की वजह से यह स्त्री काफी तनाव से गुज़र रही थी। इसलिए उसने यहोवा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की और उससे मदद माँगी कि वह उसे सही राह दिखाए। जब उसने अपने बाइबल शिक्षक से और मंडली के दूसरे भाई-बहनों से बात की, तो उसे यहोवा का नज़रिया समझने में मदद मिली। उसे यह भी एहसास हुआ कि अगर उसका बच्चा इस बढ़ती उम्र में अपने माता-पिता से अलग रहेगा, तो उसे भावनात्मक तौर पर नुकसान हो सकता है। इसलिए इस बारे में बाइबल क्या कहती है, उस पर गंभीरता से सोचने के बाद, उसने फैसला किया कि बच्चे को खुद से अलग करना सही नहीं होगा। जब उसके पति ने देखा कि मंडली के भाई-बहन कैसे उनकी मदद करने आ रहे हैं, और उनका बच्चा कितना स्वस्थ है, तो उसने भी बाइबल अध्ययन करना शुरू किया और अपनी पत्नी के साथ सभाओं में आने लगा।
9, 10. स्वस्थ मन रखने का क्या मतलब है? हम स्वस्थ मन कैसे रख सकते हैं?
9 यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, मगर यह इस बात को दिखाता है कि स्वस्थ मन से फैसला करने का मतलब यह नहीं कि हम बस वही करें जो हमें या दूसरों को सही या आसान लगता है। हमारे असिद्ध दिल और दिमाग की तुलना एक घड़ी से की जा सकती है, जो या तो बहुत तेज़ चल रही है या बहुत ही धीरे। अगर हम गलत समय दिखानेवाली उस घड़ी के हिसाब से चलें, तो हम मुसीबत में पड़ सकते हैं। (यिर्म. 17:9) इसलिए अगर हम मुसीबतों से बचना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम अपने दिल और दिमाग को परमेश्वर के भरोसेमंद स्तरों के मुताबिक ढालें।—यशायाह 55:8, 9 पढ़िए।
10 बाइबल हमें यह बुद्धि-भरी सलाह देती है: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।” (नीति. 3:5, 6) ध्यान दीजिए यह आयत कहती है, “तू अपनी समझ का सहारा न लेना।” इसके बाद आयत कहती है, यहोवा को ‘स्मरण करना।’ सिर्फ वही है, जिसका मन पूरी तरह से स्वस्थ है। इसलिए कोई भी फैसला लेने से पहले, हमें बाइबल से जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उस मामले में यहोवा का क्या नज़रिया है, ताकि हम वही फैसला लें, जो यहोवा का होगा। अगर हम स्वस्थ मन रखना चाहते हैं, तो हमें यहोवा की सोच अपनानी होगी।
अपने सोचने-समझने की शक्ति को प्रशिक्षित कीजिए
11. बुद्धि-भरे फैसले लेने के लिए एक व्यक्ति को क्या करना होगा?
11 बुद्धि-भरे फैसले लेना और उन्हें लागू करना सीखना इतना आसान नहीं है। यह खासकर उनके लिए चुनौती-भरा हो सकता है, जो सच्चाई में नए हैं या जिन्होंने सच्चाई में तरक्की करना बस शुरू ही किया है। मगर ऐसे लोगों के लिए, सचमुच में आध्यात्मिक तरक्की करना मुमकिन है। बाइबल उन्हें ‘बच्चे’ कहती है, क्योंकि वे उन नन्हे-मुन्नों की तरह हैं जो चलना सीख रहे हैं। एक नन्हा-मुन्ना लगातार छोटे-छोटे कदम भरकर चलना सीखता है। जो बुद्धि-भरे फैसले लेना सीख रहे हैं, वे भी कुछ ऐसा ही करते हैं। प्रेषित पौलुस ने कहा कि बड़े लोग “अपनी सोचने-समझने की शक्ति का इस्तेमाल करते-करते, सही-गलत में फर्क करने के लिए इसे प्रशिक्षित कर लेते हैं।” शब्द “इस्तेमाल करते-करते” और “प्रशिक्षित” दिखाते हैं कि हमें लगातार मेहनत करनी है। इसलिए बुद्धि-भरे फैसले लेना सीखने के लिए, नए लोगों को लगातार मेहनत करने की ज़रूरत है।—इब्रानियों 5:13, 14 पढ़िए।
12. हम बुद्धि-भरे फैसले लेने की अपनी काबिलीयत कैसे बढ़ा सकते हैं?
12 जैसा कि हमने शुरूआत में ज़िक्र किया था हर दिन हमें बहुत-से फैसले लेने होते हैं, कभी छोटे तो कभी बड़े। एक अध्ययन के मुताबिक, हम 40 प्रतिशत से ज़्यादा फैसले लेते वक्त इतना ध्यान नहीं देते बल्कि इन्हें बिना सोचे-समझे ले लेते हैं, क्योंकि ये हमारी आदत में शुमार हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, हर सुबह आपको फैसला करना होता है कि आप कौन-से कपड़े पहनेंगे। आप शायद इसे छोटी-सी बात समझें और ज़्यादा गौर किए बगैर चुनाव कर लें, खासकर तब जब आप जल्दी में हों। मगर इस बात पर आपको ज़रूर सोचना चाहिए कि आप जो पहननेवाले हैं, क्या वह यहोवा के एक सेवक को शोभा देगा। (2 कुरिं. 6:3, 4) जब आप कपड़े खरीदने जाते हैं, तो हो सकता है आप सोचें कि आजकल का फैशन क्या है, लेकिन क्या आप उसकी शालीनता और कीमत पर भी ध्यान देते हैं? इन छोटे-मोटे मामलों में सही चुनाव करने से आप अपने सोचने-समझने की शक्ति को प्रशिक्षित कर पाएँगे। और अगर आप ऐसा करते रहें, तो आप ऐसे मामलों में भी बुद्धि-भरे फैसले ले पाएँगे जो ज़्यादा अहमियत रखते हैं।—लूका 16:10; 1 कुरिं. 10:31.
सही काम करने के लिए गहरी इच्छा पैदा कीजिए
13. जो फैसला हमने किया है, उसके मुताबिक काम करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
13 हम सब जानते हैं कि सही फैसला लेने के बाद भी, उसके मुताबिक काम करना हमेशा आसान नहीं होता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सिगरेट छोड़ने का फैसला लेते हैं, लेकिन सिगरेट छोड़ने की उनकी इच्छा इतनी ज़बरदस्त नहीं होती कि वे इसे छोड़ पाएँ, इसलिए वे नाकाम हो जाते हैं। किसी फैसले में कामयाब होने के लिए, मज़बूत इरादा ज़रूरी है। कुछ लोग कहते हैं कि अपना इरादा मज़बूत करना, माँसपेशियों को मज़बूत करने जैसा है। जितना ज़्यादा हम अपनी माँसपेशियों का इस्तेमाल करेंगे या कसरत करेंगे, उतनी ज़्यादा ये मज़बूत होती जाएँगी। और अगर हम इनका बहुत कम इस्तेमाल करें, तो ये कमज़ोर हो जाएँगी। हमने जो करने का फैसला किया है, उस इच्छा को मज़बूत करने के लिए क्या बात हमारी मदद करेगी? इसके लिए ज़रूरी है कि हम यहोवा से मदद माँगें।—फिलिप्पयों 2:13 पढ़िए।
14. पौलुस को किस बात ने शक्ति दी ताकि वह जो करना चाहता था, वह कर सके?
14 पौलुस अपने अनुभव से जानता था कि सही काम करना बहुत मुश्किल है। उसने एक बार अफसोस जताते हुए कहा: “भला काम करने की इच्छा तो मेरे अंदर है, मगर भला काम मुझसे होता नहीं।” वह जानता था कि वह क्या करना चाहता है या उसे क्या करना चाहिए लेकिन कभी-कभी कोई चीज़ उसे वह काम करने से रोकती थी। उसने कबूल किया: “मेरे अंदर का इंसान वाकई परमेश्वर के कानून में खुशी पाता है मगर मैं अपने अंगों में दूसरे कानून को काम करता हुआ पाता हूँ, जो मेरे सोच-विचार पर राज करनेवाले कानून से लड़ता है और मुझे पाप के उस कानून का गुलाम बना लेता है जो मेरे अंगों में है।” मगर क्या वह बेबस था? नहीं। उसने खुद कहा: “हमारे प्रभु, यीशु मसीह के ज़रिए परमेश्वर का धन्यवाद हो!” (रोमि. 7:18, 22-25) पौलुस ने यह भी लिखा: “जो मुझे ताकत देता है, उसी से मुझे सब बातों के लिए शक्ति मिलती है।”—फिलि. 4:13.
15. हमें सही काम करने की क्यों ठान लेनी चाहिए?
15 परमेश्वर को खुश करने के लिए ज़रूरी है कि हम सही काम करने का फैसला लें और उस पर बने रहने की ठान लें। याद कीजिए कि एलिय्याह ने बाल की उपासना करनेवालों और सच्चे धर्म का विरोध करनेवाले इसराएलियों से कर्म्मेल पर्वत पर क्या कहा था: “तुम कब तक दो विचारों में लटके रहोगे? यदि यहोवा ही परमेश्वर हो तो उसके पीछे हो लो, और यदि बाल हो तो उसके पीछे हो लो।” (1 राजा 18:21, अ न्यू हिंदी ट्रांस्लेशन) इसराएली जानते थे कि उन्हें सिर्फ यहोवा की उपासना करनी चाहिए। लेकिन वे “दो विचारों में लटके” हुए थे, क्योंकि वे यहोवा और बाल, दोनों की उपासना करने की कोशिश कर रहे थे। इसके बिलकुल उलट, सालों पहले यहोशू ने एक बेहतरीन उदाहरण रखा, जब उसने इसराएलियों से कहा: “यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे . . . परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा ही की सेवा नित करूंगा।” (यहो. 24:15) उसके इस फैसले का क्या नतीजा हुआ? यहोशू और जो उसके साथ डटे रहे, उन्हें आशीष मिली और वे वादा किए गए देश में दाखिल हुए, जिसमें “दूध और मधु की धाराएं बहती हैं।”—यहो. 5:6.
बुद्धि-भरे फैसले लीजिए और आशीषें पाइए
16, 17. यहोवा की मरज़ी के मुताबिक फैसले लेने से क्या फायदे होते हैं?
16 हाल ही में बपतिस्मा पाए एक भाई और उसकी पत्नी के तीन छोटे बच्चे हैं। उसकी बहुत कम तनख्वाहवाली नौकरी है, लेकिन उसने यह नौकरी इसलिए चुनी ताकि वह शनिवार-रविवार के दिन सभाओं में जा सके और अपने परिवार के साथ प्रचार में जा सके। एक दिन, उस भाई के साथ काम करनेवाले ने सुझाव दिया कि वह उसके साथ दूसरी कंपनी में नौकरी करे, जहाँ उन्हें ज़्यादा पैसा भी मिलेगा और कंपनी की तरफ से कुछ दूसरे फायदे भी मिलेंगे। हमारे भाई ने फैसला लेने से पहले इस बारे में बहुत सोचा और प्रार्थना की। उसे एहसास हुआ कि अगर वह नयी नौकरी करता है, तो शनिवार-रविवार को उसे प्रचार और सभाओं के लिए पहले जितना वक्त नहीं मिल पाएगा, कम-से-कम कुछ समय के लिए तो बिलकुल भी नहीं। अगर आप इस भाई की जगह होते, तो आप क्या करते?
17 इस बारे में सोच-विचार करने के बाद कि इस फैसले का यहोवा के साथ उसके रिश्ते पर कैसा असर पड़ेगा, उसने ज़्यादा पैसेवाली वह नौकरी कबूल करने से इनकार कर दी। क्या आपको लगता है कि बाद में उसे अपने फैसले पर अफसोस हुआ? बिलकुल नहीं। उसका मानना था कि उसके और उसके परिवार के लिए यहोवा के साथ एक करीबी रिश्ता बनाए रखना, पैसा कमाने से ज़्यादा मायने रखता है। जब उनकी दस साल की बेटी ने आकर उनसे कहा कि वह अपने माता-पिता, भाई-बहनों और यहोवा से बहुत प्यार करती है, तो वे खुशी से फूले नहीं समाए। उसने कहा कि वह यहोवा को अपना जीवन समर्पित करना चाहती है और बपतिस्मा लेना चाहती है। उसके पिता ने यहोवा की उपासना को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देकर जो अच्छा उदाहरण रखा, उसका उसकी बेटी पर बहुत ही अच्छा असर हुआ!
18. यह क्यों ज़रूरी है कि हम हर दिन निजी मामलों में बुद्धि-भरे फैसले लें?
18 जैसे मूसा ने इसराएलियों की विराने में अगुवाई की थी, उसी तरह महान मूसा, यीशु मसीह भी कई सालों से शैतान की विरानी दुनिया में यहोवा के सच्चे उपासकों की अगुवाई कर रहा है। बहुत जल्द यह दुनिया नाश हो जाएगी। और जिस तरह यहोशू इसराएलियों को वादा किए गए देश में ले गया था, उसी तरह महान यहोशू, यीशु भी अपने चेलों को वादा की गयी नयी दुनिया में जल्द ही ले जानेवाला है, जहाँ न्याय का बसेरा होगा। (2 पत. 3:13) वह दिन इतना करीब है, तो आज हमारे लिए अपनी पुरानी आदतों, उसूलों और लक्ष्यों के पीछे भागना बुद्धिमानी नहीं होगी। इसके बजाय, हमें आज और भी अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा क्या है। (रोमि. 12:2; 2 कुरिं. 13:5) इसलिए हर दिन बुद्धि-भरे फैसले लीजिए और सही चुनाव कीजिए, और इस तरह के इंसान बनिए जिसे परमेश्वर हमेशा-हमेशा आशीष देगा।—इब्रानियों 10:38, 39 पढ़िए।
^ अपने बच्चे को अपने देश भेजने की एक और वजह यह है कि उसके दादा-दादी या नाना-नानी अपने नाती-पोते को अपने दोस्तों या रिश्तेदारों को दिखा सकें।