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यहोवा ने उन्हें पहाड़ों की छाया में महफूज़ रखा

यहोवा ने उन्हें पहाड़ों की छाया में महफूज़ रखा

तड़के सुबह एक स्त्री अपने घर का दरवाज़ा खोलती है और देखती है कि वहाँ एक पैकेट रखा है। वह उसे उठाती है और इधर-उधर देखती है, मगर सड़क पर कोई दिखायी नहीं देता। किसी अनजान व्यक्‍ति ने रात में उस पैकेट को वहाँ रख दिया होगा। जैसे ही वह उस पैकेट को थोड़ा-सा खोलती है, उसकी आँखें फटी-की-फटी रह जाती हैं। वह फौरन उस पैकेट को अंदर ले जाती है और दरवाज़ा बंद कर देती है। उसका ऐसा करना लाज़िमी है, क्योंकि उस पैकेट में बाइबल का साहित्य जो है, जिस पर पाबंदी लगी है! वह उस पैकेट को अपने सीने से लगाती है और उस अनमोल आध्यात्मिक भोजन के लिए मन-ही-मन यहोवा का शुक्रिया अदा करती है।

सन्‌ 1930 के दशक में जर्मनी में ऐसा अकसर होता था। सन्‌ 1933 में जब नात्ज़ी सरकार ने राज करना शुरू किया, तो उस देश के ज़्यादातर इलाकों में यहोवा के साक्षियों के काम पर पाबंदी लगा दी गयी। रिसचार्ट रूडॉल्फ, जिनकी उम्र अब 100 से भी ज़्यादा है, कहते हैं: “हमें इस बात का पूरा यकीन था कि इंसान की लगायी ऐसी कोई भी बंदिश, हमें यहोवा और उसके नाम का ऐलान करने से रोक नहीं सकती थी। * बाइबल साहित्य हमारे लिए अध्ययन और प्रचार करने का एक अहम ज़रिया था। लेकिन पाबंदी की वजह से अब यह आसानी से हमें नहीं मिल सकता था। हमें समझ नहीं आ रहा था कि काम आगे कैसे बढ़ेगा।” इसके कुछ ही वक्‍त बाद, रिसचार्ट को पता चला कि वे खुद इस काम में एक बहुत ही अनोखे तरीके से मदद दे सकते हैं। यह काम पहाड़ों की छाया में किया जाता।—न्यायि. 9:36.

तस्करों के अपनाए रास्तों से गुज़रना

अगर आप एल्बे (या लाबे) नदी जहाँ से शुरू होती है, उस तरफ बढ़ते जाएँ, तो आखिरकार आप जाएंट माउन्टेंस (करकॉनोशे) पहुँच जाएँगे, जो आज चेक रिपब्लिक और पोलैंड की सीमा पर हैं। हालाँकि इन पहाड़ों की ऊँचाई करीब 5,250 फुट (1,600 मीटर) ही है, लेकिन फिर भी इन पर बहुत बर्फ पड़ती है और साल के लगभग छ: महीने इन पहाड़ों की चोटियाँ 10 फुट (3 मीटर) तक बर्फ से ढकी रहती हैं। यहाँ का मौसम अचानक ही बदल जाता है। कई लोग इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, इसलिए कभी-कभार वे पहाड़ों की चोटियों पर अचानक हुए घने कोहरे में फँस जाते हैं।

सदियों से यह पर्वतमाला प्रांतों और राज्यों के बीच सीमा का काम करती आयी है। इस खतरनाक इलाके में पहरेदारी करना बहुत मुश्‍किल होता था, इसलिए बीते ज़माने में बहुत-से लोग इन पहाड़ों की आड़ में चीज़ों की तस्करी किया करते थे। सन्‌ 1930 के दशक में, जब जाएंट माउन्टेंस के एक तरफ चेकोस्लोवाकिया था और दूसरी तरफ जर्मनी, तब कुछ साक्षियों ने पक्के इरादे के साथ इन रास्तों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिन पर तस्करी हुआ करती थी। किस लिए? ताकि वे ऐसी जगहों से अनमोल बाइबल साहित्य ला सकें, जहाँ ये ज़्यादा आसानी से मिल सकते थे। जवान भाई रिसचार्ट उन साक्षियों में से एक थे।

भाई-बहन पर्वतारोहियों की तरह कपड़े पहनकर जाएंट माउन्टेंस पार करके जर्मनी में साहित्य लाते थे

खतरनाक सफर

रिसचार्ट बीते समय को याद करते हुए कहते हैं: “शनिवार-रविवार को हम सात या आठ जवान भाइयों के अलग-अलग समूह बनाकर पहाड़ों की तरफ, पर्वतारोहियों की तरह कपड़े पहनकर जाया करते थे। जर्मनी की तरफ से पहाड़ों को पार करते हुए स्पिंडलरूव मलिन रिसॉर्ट पहुँचने में हमें करीब तीन घंटे लगते थे।” यह रिसॉर्ट कुछ 10 मील (16.5 कि.मी.) दूर सीमा के उस पार, चेक देश में था। उन दिनों, कई जर्मन निवासी उस इलाके में रहते थे। इनमें से एक किसान था, जो भाइयों की मदद करने के लिए राज़ी हो गया। यह किसान छुट्टियों में आए सैलानियों को ले जाने के लिए अपनी जिस घोड़ा-गाड़ी का इस्तेमाल किया करता था, उसी घोड़ा-गाड़ी में वह प्राग शहर से रेल के ज़रिए पास के कस्बे में आए हमारे बाइबल साहित्य के बक्से अपने खेत तक ले आता। फिर वह किताबों के बक्सों को, तबेले के ऊपर सूखी घास रखने के लिए बने कमरे में छिपा देता, और हमारे इन कुरियर भाइयों का इंतज़ार करता, जो यह साहित्य जर्मनी ले जाते।

रिसचार्ट कहते हैं: “उस किसान के खेत में पहुँचने के बाद, हम अपने बस्तों में साहित्य भर लेते। ये बस्ते खासकर भारी सामान उठाने के लिए तैयार किए गए थे। हममें से हरेक करीब 100 पौंड (50 किलो) वज़न उठाता।” ये भाई रात के अँधेरे में सफर किया करते थे, ताकि वे किसी की नज़र में न आएँ। वे सूरज ढलने के बाद सफर शुरू करते और सूरज निकलने से पहले घर पहुँच जाते। अर्नस्ट वीसनर, जो उस वक्‍त जर्मनी में सर्किट निगरान थे, बताते हैं कि किस तरह वे सफर के दौरान एहतियात बरतते थे: “दो भाई आगे-आगे चलते, और जब भी रास्ते में उनका किसी से पाला पड़ता, तो वे तुरंत अपनी टॉर्च से करीब 100 मीटर [328 फुट] दूर अपने पीछे-पीछे भारी बस्ते उठाए आ रहे भाइयों को इशारा कर देते। इस तरह उन भाइयों को पता चल जाता था कि उन्हें झाड़ियों में तब तक छिपना है, जब तक कि वे दोनों भाई पीछे आकर उन्हें पहले से ठहराया गया पासवर्ड नहीं बताते। वे हर हफ्ते एक नया पासवर्ड रखते थे।” लेकिन भाइयों को सिर्फ इन नीली वर्दीवाली जर्मनी की पुलिस से खतरा नहीं था।

रिसचार्ट यह भी कहते हैं, “एक शाम मुझे देर तक काम करना पड़ा। जब तक मैं चेक देश के लिए रवाना हुआ, भाइयों के समूह को निकले काफी वक्‍त बीत चुका था। अँधेरा हो चुका था और कोहरा भी था। बारिश में चलते-चलते मैं ठंड के मारे काँप रहा था। मैं बौने चीड़ के पेड़ों के बीच चलते-चलते रास्ता भटक गया था और कई घंटों तक मैं भटकता रहा। बहुत से पर्वतारोही इस तरह अपनी जान गवाँ चुके हैं। सुबह-सुबह जब भाइयों का समूह वापस लौट रहा था, तब कहीं जाकर उनसे मेरी मुलाकात हुई।”

करीब तीन साल तक, ये भाई हिम्मत के साथ हर हफ्ते पहाड़ों पर सफर करते रहे। सर्दियों में, वे अपना अनमोल साहित्य स्की या टोबॉगन (लकड़ी का बना तख्ता) पर ले जाते थे। कभी-कभार तकरीबन 20 भाइयों से मिलकर बने समूह दिन के उजाले में ही उन रास्तों से सीमा पार करते, जहाँ से पर्वतारोही अकसर गुज़रते थे। कुछ बहनें भी उनके साथ जाती थीं, ताकि लोगों को लगे कि वे बस पर्वतारोही हैं। उनमें से कुछ बहनें आगे-आगे चलतीं और जब उन्हें किसी खतरे की भनक पड़ती, तो वे अपनी टोपियाँ हवा में उछाल देतीं।

जाएंट माउन्टेंस की बर्फ से ढकी चोटियाँ इस सफर को और भी खतरनाक बना देती थीं

जब ये भाई रात-भर सफर करके घर लौटते, उसके बाद क्या होता था? पहले से इंतज़ाम किए जाते थे, ताकि साहित्य तुरंत बाँटे जा सकें। कैसे? साहित्यों को इस तरह पैक किया जाता था मानो वे साबुन के डिब्बे हों और फिर इन्हें हिर्शबेर्क के रेलवे स्टेशन ले जाया जाता था। वहाँ से डिब्बों को जर्मनी के अलग-अलग इलाकों में भेजा जाता था, जहाँ से भाई-बहन सावधानी बरतते हुए इन्हें दूसरे भाई-बहनों तक पहुँचा देते थे, जैसा इस लेख की शुरूआत में बताया गया है। छिपकर साहित्य बाँटने का यह नेटवर्क इतनी करीबी से जुड़ा हुआ था, कि अगर किसी भी मोड़ पर कोई पकड़ा जाता, तो उसका अंजाम बहुत बुरा हो सकता था। दरअसल, एक दिन कुछ ऐसा ही हुआ जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी।

सन्‌ 1936 में, बर्लिन शहर के पास साहित्य के एक डिपो पर छापा पड़ा। उनमें तीन पैकेट ऐसे थे, जो किसी अनजान व्यक्‍ति ने हिर्शबेर्क से भेजे थे। पुलिस ने उस पैकेट पर लिखावट की जाँच की, जिससे उन्होंने साहित्य की तस्करी करनेवाले भाइयों के एक खास सदस्य को पहचान लिया और उसे गिरफ्तार कर लिया। कुछ ही समय बाद, दो और भाइयों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन पर पुलिस को शक था। उनमें से एक थे भाई रिसचार्ट रूडॉल्फ। गिरफ्तार किए गए इन भाइयों ने कबूल किया कि इन सब के पीछे सिर्फ उन्हीं का हाथ था, इसलिए कुछ समय तक इस समूह के बाकी सदस्य साहित्य लाने-ले-जाने का खतरनाक सफर जारी रख पाए, जो दिन-ब-दिन और भी खतरनाक होता गया।

हमारे लिए सबक

जाएंट माउन्टेंस का सफर तय करके बस्ते में भरकर लाया गया साहित्य, जर्मनी में रहनेवाले साक्षियों के लिए बाइबल साहित्य पाने का एक अहम ज़रिया था। लेकिन साहित्य लाने के लिए भाई सिर्फ जाएंट माउन्टेंस का सहारा नहीं लेते थे। सन्‌ 1939 तक, जब चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी की हुकूमत थी, तब उन दो देशों की सीमा पार करके साहित्य जर्मनी तक लाने के लिए और भी कई रास्ते इस्तेमाल किए जाते थे। जर्मनी की सीमा पर बसे दूसरे देशों, जैसे फ्राँस, नेदरलैंड्‌स और स्विट्‌ज़रलैंड के साक्षियों और जर्मनी के साक्षियों ने अपनी जान पर खेलकर अपने उन भाइयों को आध्यात्मिक खाना पहुँचाया, जिन पर ज़ुल्म ढाए जा रहे थे।

आज हममें से ज़्यादातर साक्षी जितना साहित्य चाहते हैं उतना पा सकते हैं और वह भी अलग-अलग रूप में, जैसे किताबें, ऑडियो-वीडियो, वगैरह। आप चाहे राज-घर से कोई नया साहित्य लें या फिर हमारी वेब साइट jw.org से इसे डाउनलोड करें, क्यों न आप इस बारे में सोचें कि इसे तैयार करने और आप तक पहुँचाने में क्या कुछ किया गया? हो सकता है इन साहित्यों को बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियों को पार करके, आधी रात को हैरतअंगेज़ तरीके से आप तक न पहुँचाया गया हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इसमें बहुत-से भाई-बहनों की कड़ी मेहनत छिपी है, जो बिना किसी स्वार्थ के आपकी सेवा कर रहे हैं।

^ भाई रूडॉल्फ, साइलीज़ा की हिर्शबेर्क मंडली में सेवा करते थे। हिर्शबेर्क शहर आज दक्षिण-पश्‍चिमी पोलैंड में येलेनया गूरा के नाम से जाना जाता है।