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वह सब बातें “अपने मन में रखकर सोचती रही”

वह सब बातें “अपने मन में रखकर सोचती रही”

उनके विश्‍वास की मिसाल पर चलिए

वह सब बातें “अपने मन में रखकर सोचती रही”

सोचिए अगर एक स्त्री गर्भवती हो और उसे बहुत लंबा सफर करना पड़े, वह भी एक गधे पर बैठकर, तो उसे कितनी मुश्‍किल होगी। ऐसा ही हाल मरियम नाम की एक यहूदी स्त्री का था। वह अपने पति यूसुफ के साथ अपने नगर नासरत से दूर बेतलेहेम जा रही थी। रास्ते में मरियम ने एक बार फिर गर्भ में पल रहे अपने बच्चे की हरकत महसूस की।

बाइबल में दर्ज़ इस वाकये से मालूम होता है कि मरियम का नौंवा महीना चल रहा था। (लूका 2:5, 6) सफर के दौरान यूसुफ और मरियम कई खेत-खलिहानों से गुज़रे। उन खेतों में जुताई और बोआई करनेवाले कुछ किसानों ने शायद उन्हें देखकर सोचा होगा कि इस हालत में यह स्त्री कहाँ जा रही है। आखिर मरियम क्यों इतने लंबे सफर पर निकली थी?

दरअसल कई महीने पहले मरियम को परमेश्‍वर की तरफ से एक ऐसी ज़िम्मेदारी मिली थी, जो पूरे इतिहास में सबसे अनोखी थी। उससे कहा गया कि वह परमेश्‍वर के बेटे को जन्म देगी, जो आगे चलकर मसीहा बनेगा। (लूका 1:35) जब वह वक्‍त करीब आया, तो मरियम को इस सफर पर निकलना पड़ा। इस दौरान उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिससे उसके विश्‍वास की परख हुई। आइए देखें कि उसने किस तरह अपने विश्‍वास को मज़बूत रखा।

बेतलेहेम तक का सफर

यूसुफ और मरियम के अलावा और भी कई लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे। दरअसल कैसर औगूस्तुस ने यह हुक्म जारी किया था कि सभी लोग वहाँ जाकर अपने-अपने नाम लिखवाएँ जहाँ से उनके परिवार आए थे। इस पर यूसुफ ने क्या किया? बाइबल बताती है: “यूसुफ भी गलील प्रदेश के नासरत नगर से यहूदा प्रदेश में दाऊद के नगर बैतलहम को गया, क्योंकि वह दाऊद के परिवार और वंश का था।”—लूका 2:1-4, आर.ओ.वी.

कैसर का इस वक्‍त यह हुक्म जारी करना कोई इत्तफाक नहीं था। क्योंकि करीब 700 साल पहले यह भविष्यवाणी की गयी थी कि मसीहा बेतलेहेम में पैदा होगा। नासरत से 11 किलोमीटर दूर बेतलेहेम नाम का एक नगर था। लेकिन भविष्यवाणी में साफ-साफ बताया गया था कि मसीहा “बेतलेहेम एप्राता” में पैदा होगा। (मीका 5:2) यह छोटा-सा नगर नासरत के दक्षिण में है और यहाँ तक पहुँचने के लिए करीब 150 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता तय करना पड़ता है। यूसुफ को इसी बेतलेहेम में आकर अपना नाम लिखवाना था, क्योंकि वह और उसकी पत्नी राजा दाऊद के वंशज थे, जो इस नगर का रहनेवाला था।

जब यूसुफ ने मरियम को साथ ले जाने का फैसला किया, तो क्या मरियम ने उसके फैसले को कबूल किया? देखा जाए तो मरियम के पास न जाने की कई वजह थीं। एक तो यह सफर उसके लिए बहुत भारी पड़ सकता था। गरमी का मौसम लगभग खत्म हो चुका था और पतझड़ शुरू हो गया था। इसलिए हलकी बारिश होने की संभावना थी। और-तो-और, बेतलेहेम 2,500 फुट की ऊँचाई पर बसा था, जहाँ तक पहुँचने के लिए कई दिन चलना पड़ता और आखिरी चढ़ाई बहुत ही मुश्‍किल होती। मरियम के लिए तो यह सफर और भी लंबा होता, क्योंकि इस नाज़ुक हालत में उसे बीच-बीच में आराम करने के लिए रुकना पड़ता। इसके अलावा, उसकी प्रसव-पीड़ा कभी-भी शुरू हो सकती थी और ऐसे वक्‍त में हर स्त्री अपने परिवार और सहेलियों के पास रहना चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि इस सफर पर निकलने के लिए मरियम को बहुत हिम्मत की ज़रूरत थी।

ध्यान दीजिए कि लूका बताता है कि यूसुफ ‘अपनी पत्नी मरियम के साथ नाम लिखवाने’ गया। (लूका 2:4, 5, बुल्के बाइबिल) इसका मतलब है कि मरियम ने यूसुफ के फैसले को कबूल किया। मरियम, यूसुफ की पत्नी थी और इस बात का उसके फैसलों पर गहरा असर हुआ। वह यूसुफ को अपना मुखिया मानती थी और जानती थी कि परमेश्‍वर ने पत्नी को पति का सहायक बनाया है। इसलिए उसने यूसुफ के फैसलों में साथ देकर एक पत्नी की ज़िम्मेदारी बखूबी निभायी। * हालाँकि बेतलेहेम जाना मरियम के लिए मुश्‍किल था, मगर यूसुफ का फैसला मानकर वह अपने विश्‍वास की परीक्षा में खरी उतरी।

मरियम के बेतलेहम जाने की और क्या वजह हो सकती है? क्या वह जानती थी कि भविष्यवाणी के मुताबिक मसीहा को बेतलेहेम में पैदा होना है? इस बारे में बाइबल कुछ नहीं बताती। लेकिन शायद उसे मालूम था, क्योंकि उस ज़माने के धर्म-गुरु और आम लोग भी इस भविष्यवाणी से वाकिफ थे। (मत्ती 2:1-7; यूहन्‍ना 7:40-42) जहाँ तक मरियम की बात थी, उसे शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। (लूका 1:46-55) मरियम के बेतलेहेम जाने की वजह चाहे पति का फैसला हो, सरकारी हुक्म, यहोवा की भविष्यवाणी हो या ये तीनों ही, लेकिन एक बात तय है कि उसने आज्ञा मानने में एक बेहतरीन मिसाल रखी। यहोवा नम्रता दिखाने और आज्ञा माननेवाले स्त्री-पुरुषों को अनमोल समझता है। आज भले ही आज्ञाकारी होने का कोई मोल नहीं रह गया है, लेकिन मरियम की मिसाल से सभी वफादार लोगों को क्या ही ज़बरदस्त प्रेरणा मिलती है।

यीशु का जन्म

पहाड़ियों पर चढ़ते हुए यूसुफ और मरियम जैतून के कई बागों से गुज़रे। जैतून साल की आखिरी फसल होती थी। चलते-चलते वे बेतलेहेम के इतिहास के बारे में सोचने लगे होंगे। यह नगर इतना छोटा था कि इसे यहूदा के नगरों में गिना नहीं जाता, ठीक जैसे मीका भविष्यवक्‍ता ने कहा था। लेकिन इसी नगर में हज़ारों साल पहले बोअज़, नाओमी और दाऊद जैसे परमेश्‍वर के वफादार जन पैदा हुए थे। जब मरियम ने देखा कि वे बेतलेहेम पहुँचने ही वाले हैं, तो उसने राहत की साँस ली होगी।

बेतलेहेम आकर उन्होंने देखा कि वहाँ पाँव धरने की भी जगह नहीं। नाम लिखवाने के लिए कई लोग उनसे पहले पहुँच चुके थे, इसलिए उन्हें सराय में कोई जगह नहीं मिली। * एक पशुशाला में रुकने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। यूसुफ की चिंता तब और बढ़ गयी जब मरियम को ज़बरदस्त दर्द उठा और उसका दर्द बढ़ता ही गया। उसकी प्रसव पीड़ा शुरू हो चुकी थी।

दुनिया की हर माँ मरियम का दर्द समझ सकती है। दरअसल मरियम के ज़माने से करीब 4,000 साल पहले यहोवा ने एक भविष्यवाणी की थी। उसने कहा कि आदम से मिले पाप की वजह से हर औरत को बच्चा जनने के समय भयंकर पीड़ा होगी। (उत्पत्ति 3:16) मरियम भी इस पीड़ा से अछूती नहीं रही। मगर इस बारे में लूका सिर्फ इतना बताता है: “वह अपना पहिलौठा पुत्र जनी।” (लूका 2:7) जी हाँ, उसका “पहिलौठा” बच्चा। आगे चलकर उसके कम-से-कम छः और बच्चे हुए। (मरकुस 6:3) लेकिन उसका पहला बच्चा सबसे खास था। वह न सिर्फ मरियम का पहिलौठा था, बल्कि “सारी सृष्टि में [यहोवा का] पहिलौठा” और एकलौता बेटा था!—कुलुस्सियों 1:15.

इसके बाद लूका ने एक ऐसी बात बतायी जो बहुत जानी-मानी है: “[मरियम ने] उसे कपड़े में लपेटकर चरनी में रखा।” (लूका 2:7) यीशु के जन्म से जुड़े जितने भी नाटक, तसवीर और झाँकियाँ दिखायी जाती हैं, उनमें इस दृश्‍य को बहुत भावुक अंदाज़ में पेश किया जाता है। लेकिन वे कुछ बातों पर गौर करने से चूक जाते हैं। जैसे यूसुफ का परिवार पशुशाला में रुका था, जो उस समय और आज भी गंदी और बदबूदार जगह होती है। और यह भी कि यीशु के पैदा होने के बाद उसे चरनी में रखा गया, जिसमें जानवरों को चारा दिया जाता है। ज़रा सोचिए, अगर यूसुफ और मरियम को कोई दूसरी जगह मिलती, तो क्या वे बच्चे को जन्म देने के लिए ऐसी जगह चुनते? हरगिज़ नहीं। सभी माँ-बाप अपने बच्चों के लिए हमेशा अच्छा ही चाहते हैं। और यही बात मरियम और यूसुफ के बारे में भी सच थी। आखिर उनके यहाँ परमेश्‍वर का बेटा जन्म लेनेवाला था।

लेकिन उन्होंने अपनी मजबूरियों का रोना नहीं रोया। इसके बजाय, उनके पास जो कुछ था उसमें ही उन्होंने अपने बच्चे को अच्छे-से-अच्छा देने की कोशिश की। मिसाल के लिए मरियम ने उसे कपड़े में लपेटा और फिर उसे हौले से चरनी में सुलाया, ताकि वह सुरक्षित और गरम रहे। मरियम से जो बन पड़ा वह उसने किया। वह और यूसुफ जानते थे कि अपने बच्चे को दुनिया के ऐशो-आराम देने से ज़्यादा ज़रूरी है, उसमें परमेश्‍वर की उपासना का जज़्बा पैदा करना। (व्यवस्थाविवरण 6:6-8) आज भी इस भक्‍तिहीन संसार में समझदार माता-पिता यूसुफ और मरियम की मिसाल पर चलते हैं। वे अपने बच्चों को यही बढ़ावा देते हैं कि परमेश्‍वर की सेवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दें।

चरवाहों के आने से मिला हौसला

रात का पहर था, चारों तरफ खामोशी छायी हुई थी। अचानक पशुशाला में खलबली मच गयी। कुछ चरवाहे बच्चे को देखने वहाँ आ पहुँचे। उनके मन उमंग से भरे और चेहरे खुशी से खिले हुए थे। वे पहाड़ियों पर से आए थे, जहाँ वे अपने झुंडों की रखवाली कर रहे थे। * उन्हें देखकर यूसुफ और मरियम सकते में आ गए। चरवाहों ने उन्हें बताया कि अभी-अभी उनके साथ एक हैरतअँगेज़ घटना घटी। वे अपनी भेड़ों की रखवाली कर रहे थे कि अचानक उनके सामने एक स्वर्गदूत प्रकट हुआ। यहोवा की महिमा की ज्योति चारों तरफ चमक उठी। उस स्वर्गदूत ने बताया कि बेतलेहेम में मसीहा का जन्म हुआ है और वे उस बच्चे को कपड़े में लिपटा और चरनी में पाएँगे। उसके बाद जो हुआ वह और भी शानदार था—स्वर्गदूतों का एक बड़ा दल प्रकट हुआ और वे यहोवा की महिमा का गुणगान करने लगे!

इसलिए ये नम्र लोग तुरंत बेतलेहेम आए। उन्होंने बच्चे को चरनी में पाया, ठीक जैसे स्वर्गदूत ने बताया था। यह देखकर वे कितने रोमांचित हो उठे होंगे! उन्होंने यह खुशखबरी अपने तक नहीं रखी। “उन्हों ने वह बात . . . प्रगट की। और सब सुननेवालों ने उन बातों से जो गड़ेरियों ने उन से कहीं आश्‍चर्य किया।” (लूका 2:17, 18) उस ज़माने के धर्म-गुरु चरवाहों को तुच्छ समझते थे। लेकिन यहोवा ने इन्हीं नम्र और वफादार चरवाहों को अपने बेटे के जन्म की खुशखबरी देकर ज़ाहिर किया कि वे उसकी नज़र में अनमोल हैं। अब सवाल यह है कि चरवाहों के आने का मरियम पर क्या असर हुआ?

मरियम बच्चा जनने की पीड़ा से पस्त हो चुकी थी, लेकिन फिर भी उसने चरवाहों का एक-एक शब्द बड़े ध्यान से सुना। उसने सिर्फ सुना ही नहीं, बल्कि “ये सब बातें अपने मन में रखकर सोचती रही।” (लूका 2:19) वाकई, मरियम बातों पर गहराई से सोचती थी। वह जानती थी कि स्वर्गदूत का दिया पैगाम बहुत मायने रखता है। इसके ज़रिए यहोवा मरियम को उसके बेटे की पहचान और उसकी अहमियत समझाना चाहता था। इसलिए मरियम ने इन बातों को अपने दिल में सँजोकर रखा, ताकि वह आनेवाले महीनों और सालों के दौरान इन पर बार-बार सोच सके। इसी वजह से मरियम ज़िंदगी-भर अपने विश्‍वास में अटल रही।

क्या आप मरियम की मिसाल पर चलेंगे? यहोवा ने अपने वचन बाइबल में अहम सच्चाइयाँ दर्ज़ करवायी हैं। उनसे हमें तभी फायदा हो सकता है, जब हम उन पर ध्यान दें। और ऐसा हम रोज़ाना बाइबल पढ़ने के ज़रिए कर सकते हैं। लेकिन हमें इसे महज़ साहित्य की रचना समझकर नहीं, बल्कि परमेश्‍वर की प्रेरणा से लिखा गया वचन समझकर पढ़ना चाहिए। (2 तीमुथियुस 3:16) फिर हमें मरियम की तरह इन सच्चाइयों को अपने दिल में उतारना चाहिए और उनके बारे में गहराई से सोचते रहना चाहिए। अगर हम बाइबल में पढ़ी बातों पर मनन करें और सोचें कि कैसे हम यहोवा की दी सलाह पर चल सकते हैं, तो हम अपने विश्‍वास को और मज़बूत कर पाएँगे।

दिल में सँजोए रखने के लिए और भी बातें

इसराएलियों की कानून-व्यवस्था के मुताबिक लड़के के जन्म के आठवें दिन उसका खतना करवाना ज़रूरी था। यूसुफ और मरियम ने इस कानून को माना साथ ही, अपने बच्चे का नाम यीशु रखा, जैसा कि उन्हें बताया गया था। (लूका 1:31) फिर 40वें दिन वे यीशु को बेतलेहेम से कुछ ही किलोमीटर दूर यरूशलेम के मंदिर में ले गए और भेंट चढ़ायी। व्यवस्था के मुताबिक शुद्ध होने के लिए माता-पिता को एक मेढ़ा और एक फाख्ता चढ़ाना होता था। लेकिन जिनकी इतनी हैसियत नहीं होती थी, वे दो फाख्ता या दो कबूतर चढ़ा सकते थे। यूसुफ और मरियम ने दो छोटे पंछी भेंट में चढ़ाए। हो सकता है, उन्हें संकोच महसूस हुआ हो, लेकिन उन्होंने ऐसी भावनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। एक बात तय है कि जितनी देर वे मंदिर में रहे, उन्हें काफी हौसला मिला।—लूका 2:21-24.

मंदिर में शमौन नाम का एक बुज़ुर्ग था, जिससे यहोवा ने वादा किया था कि वह अपने जीते-जी मसीहा को ज़रूर देखेगा। जब यहोवा की पवित्र शक्‍ति ने उस पर ज़ाहिर किया कि नन्हा यीशु ही मसीहा है, तब वह यूसुफ और मरियम के पास आया और ऐसी बातें कहीं जिन्हें मरियम ने अपने दिल में सँजो लिया। उसने मरियम को बताया कि एक दिन उसे बहुत दुख सहना पड़ेगा। उस वक्‍त वह ऐसा महसूस करेगी मानो एक तलवार उसके सीने के आर-पार हो गयी हो। (लूका 2:25-35) भले ही इन शब्दों से पता चलता है कि कुछ बुरा होनेवाला था, लेकिन इन्हीं शब्दों से मरियम को उस मुश्‍किल घड़ी का सामना करने में मदद मिली जो तैंतीस साल बाद आयी। शमौन के बाद हन्‍नाह नाम की एक भविष्यवक्‍तिन ने यीशु को देखा और वह उसके बारे में उन सब को बताने लगी, जो यरूशलेम के छुटकारे की आस लगाए बैठे थे।—लूका 2:36-38.

अपने बच्चे को यहोवा के मंदिर में लाकर यूसुफ और मरियम ने बहुत ही बढ़िया काम किया। इस तरह उन्होंने अपने बेटे में छुटपन से ही यहोवा के मंदिर में हाज़िर होने की अच्छी आदत डाली। मंदिर में वे परमेश्‍वर की सेवा में जितना कर सके, उतना किया। उन्हें वहाँ हिदायतें और हौसला दोनों मिले। इसमें कोई शक नहीं कि मंदिर से लौटने पर मरियम का विश्‍वास पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत हुआ। यही नहीं, उसने वहाँ सीखी ढेरों बातों को अपने दिल में बसा लिया, जिन पर वह मनन कर सकती थी और दूसरों को भी बता सकती थी।

यह कितनी खुशी की बात है कि जो माता-पिता यहोवा के साक्षी हैं, वे यूसुफ और मरियम की मिसाल पर चलने की कोशिश करते हैं। वे अपने बच्चों को बिना नागा मसीही सभाओं में लाते हैं। वे वहाँ परमेश्‍वर की सेवा में अपना भरसक करते हैं और यहोवा के दूसरे उपासकों का भी हौसला बढ़ाते हैं। जब वे सभाओं से लौटते हैं, तो उनके चेहरे खुशी से खिले होते हैं, उनका विश्‍वास पहले से ज़्यादा मज़बूत होता है। और उनका दिल ऐसी ढेरों बातों से भरा होता है, जिन्हें वे दूसरों को बताने के लिए बेताब होते हैं। हम आपको भी इन सभाओं में आने का निमंत्रण देते हैं। ऐसा करने से मरियम की तरह आपका विश्‍वास भी मज़बूत होता जाएगा। (w08 10/1)

[फुटनोट]

^ गौर कीजिए कि ऊपर बतायी आयतों और इस आयत में क्या फर्क है: “मरियम उठकर शीघ्र ही” इलीशिबा से मिलने गयी। (लूका 1:39) यह तब की बात थी, जब मरियम की सिर्फ सगाई हुई थी, शादी नहीं। हो सकता है, इलीशिबा के यहाँ जाने के लिए उसने यूसुफ से पूछा न हो। लेकिन शादी के बाद ऐसा नहीं था। बाइबल के मुताबिक उनके बेतलेहेम जाने का फैसला यूसुफ ने लिया था, मरियम ने नहीं।

^ उन दिनों मुसाफिरों और कारवाँ के रुकने के लिए हर नगर में एक बड़ा कमरा हुआ करता था।

^ चरवाहों का उस समय अपनी भेड़ों के साथ बाहर रहना उसी बात को पुख्ता करता है, जिसका इशारा बाइबल में दर्ज़ दूसरी घटनाएँ करती हैं। कौन-सी बात? यही कि यीशु का जन्म अक्टूबर की शुरूआत में हुआ, न कि दिसंबर में। क्योंकि दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ती है और ऐसे में चरवाहे अपनी भेड़ों को खुले में नहीं, बल्कि घर के पास बाड़ों में रखते थे।