इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

उसने सीखा दया दिखाना

उसने सीखा दया दिखाना

उनके विश्‍वास की मिसाल पर चलिए

उसने सीखा दया दिखाना

परमेश्‍वर का भविष्यवक्‍ता योना नीनवे शहर जाने के लिए रवाना हुआ। यह सफर 800 किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबा था। इसे तय करने में उसे महीना-भर लग सकता था। इस दौरान उसने काफी कुछ सोचा। सबसे पहले उसे यह चुनना था, ‘किस रास्ते पर आगे बढ़ूँ? छोटा रास्ता लूँ जो खतरों से खाली नहीं या लंबा रास्ता लूँ जो सुरक्षित है?’ इस तरह फैसला करते हुए उसने न जाने कितनी घाटियाँ और पहाड़ पार किए। वह दूर-दूर तक फैले अराम के तपते रेगिस्तान के किनारे-किनारे चला। उसने कई तेज़ बहती नदियाँ पार कीं, जैसे फरात नाम की एक बड़ी नदी। उसने अराम, मेसोपोटामिया और अश्‍शूर के गाँवों और शहरों में अनजान लोगों के घरों में पनाह ली। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, वह अपनी मंज़िल के बारे में सोचने लगा। और नीनवे शहर के बारे में सोचकर वह बुरी तरह काँप उठा।

मगर योना एक बात अच्छी तरह जानता था। वह यह कि परमेश्‍वर ने उसे जो काम सौंपा है, उससे वह भाग नहीं सकता। क्योंकि पहले जब उसने ऐसा करने की कोशिश की, तो वह नाकाम रहा। यहोवा ने उससे कहा था कि वह शक्‍तिशाली अश्‍शूरियों के नगर में जाकर यह संदेश सुनाए कि परमेश्‍वर उनका खात्मा करनेवाला है। इस पर योना इतना डर गया कि वह फौरन उस जहाज़ पर सवार हो गया, जो अश्‍शूर से उलटी दिशा में जा रहा था। फिर यहोवा ने समुंदर में एक भयानक तूफान उठाया, जिसकी चपेट में आकर जहाज़ डूबने लगा। सभी लोगों की जान खतरे में देख योना समझ गया कि यह सब उसका कसूर है। ‘उसने परमेश्‍वर की आज्ञा क्यों नहीं मानी।’ इसलिए मल्लाहों की जान बचाने के लिए योना ने उनसे कहा कि वे उसे समुंदर में फेंक दें। पहले तो उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। मगर जब उनके आगे कोई दूसरा चारा नहीं बचा, तो मल्लाहों ने योना को उठाकर समुंदर में फेंक दिया। योना को लगा कि अब उसकी मौत पक्की है। मगर फिर यहोवा ने एक बड़ी मछली भेजी कि वह उसे निगल जाए। करीब तीन दिन बाद, मछली ने उसे सही-सलामत समुद्र के किनारे उगल दिया। इस घटना से उसके दिल में यहोवा के लिए श्रद्धा और भी बढ़ गयी। और वह परमेश्‍वर का पहले से ज़्यादा आज्ञाकारी बन गया। *योना, अध्याय 1, 2.

यहोवा ने योना को फिर से नीनवे जाने के लिए कहा। इस बार योना ने परमेश्‍वर की आज्ञा मानी और पूरब का रास्ता लिया। (योना 3:1-3) लेकिन क्या यहोवा का अनुशासन कबूल करने के बाद वह पूरी तरह बदल गया? मिसाल के लिए, यहोवा ने कई तरीकों से उस पर दया दिखायी थी। उसने योना को आज्ञा न मानने पर भी सज़ा नहीं दी, बल्कि उसे डूबने से बचाया। साथ ही, उसे नीनवे जाकर संदेश सुनाने का एक और मौका दिया। मगर क्या योना ने दूसरों पर दया दिखाना सीखा? असिद्ध इंसानों के लिए दया दिखाने का सबक सीखना अकसर मुश्‍किल होता है। मगर योना ने काफी जद्दोजेहद के बाद यह सबक सीख ही लिया। आइए देखें कैसे।

नाश का संदेश और लोगों का पश्‍चाताप

योना, नीनवे को यहोवा के नज़रिए से देखने में चूक गया। यहोवा ने कहा: “नीनवे एक बहुत बड़ा नगर” है। (योना 3:3) उसने योना की किताब में और तीन दफा कहा कि नीनवे एक ‘बड़ा नगर’ है। (योना 1:2; 3:2; 4:11) यहोवा यहाँ शहर की लंबाई-चौड़ाई की बात नहीं कर रहा था। इसके बजाय, “बड़ा” का मतलब है कि यह शहर उसके लिए बहुत ही खास था। मगर क्यों?

नीनवे बहुत ही पुराना शहर था। वह उन शहरों में से एक था, जिन्हें निम्रोद नाम के एक आदमी ने जलप्रलय के बाद बसाया था। यह शहर दरअसल एक प्रांत जितना बड़ा था, क्योंकि इसमें दूसरे शहर भी शामिल थे। इसलिए इसकी एक छोर से दूसरी छोर तक पैदल जाने के लिए तीन दिन लगते थे। (उत्पत्ति 10:11; योना 3:3) नीनवे शहर में भव्य मंदिर, ऊँची-ऊँची मज़बूत दीवारें और दूसरी आलीशान इमारतें थीं। इसलिए जो इसे एक बार देख ले, वह बस इसे निहारता ही रह जाए। लेकिन ये बातें यहोवा परमेश्‍वर के लिए कोई मायने नहीं रखती थीं। इसके बजाय वहाँ के लोग उसके लिए मायने रखते थे। उस समय नीनवे की आबादी बहुत ज़्यादा थी। हालाँकि वहाँ के लोग बुरे काम करने में लगे हुए थे, फिर भी यहोवा ने उनके लिए परवाह दिखायी। क्योंकि वह हर इंसान से प्यार करता है और उसे पश्‍चाताप करने और ज़िंदगी में अच्छे काम करने का मौका देता है।

आखिरकार, योना नीनवे पहुँचा। उस वक्‍त वहाँ की आबादी 1,20,000 से भी ज़्यादा थी। वह तो पहले ही डरा हुआ था। और अब वहाँ की घनी आबादी देख उसकी तो जान ही सूख गयी होगी। * वह पूरा दिन चलता रहा और शहर के अंदर बढ़ता गया। शायद वह ऐसी जगह तलाश रहा था, जहाँ से वह संदेश सुनाना शुरू कर सके। मगर उसने उन लोगों से किस भाषा में बात की होगी? क्या उसने अश्‍शूरी भाषा सीखी थी? या क्या यहोवा ने चमत्कार के ज़रिए उसे यह भाषा बोलने की काबिलीयत दी थी? यह हम नहीं जानते। पर हो सकता है कि योना ने संदेश अपनी भाषा इब्रानी में सुनाया हो और किसी और ने उसे अश्‍शूरी भाषा में अनुवाद किया हो। बाइबल यह बारीक जानकारी नहीं देती। फिर भी, एक बात तय है कि योना का पैगाम सीधा और साफ था। मगर यह लोगों को रास नहीं आनेवाला था। उसने कहा: “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।” (योना 3:4) वह बड़ी निडरता के साथ बार-बार यह संदेश दोहराता रहा। इस तरह उसने क्या ही हिम्मत और विश्‍वास दिखाया। आज हम मसीहियों को भी पहले से ज़्यादा ये गुण दिखाने की ज़रूरत है।

जब योना ने अपना संदेश सुनाना शुरू किया, तब उसने बेशक सोचा होगा कि अब तो मेरी खैर नहीं। मगर ताज्जुब की बात है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटा लोगों ने उसका संदेश ध्यान से सुना! देखते-ही-देखते योना का संदेश जंगल की आग की तरह पूरे शहर में फैल गया। योना का लिखा ब्यौरा बताता है: “नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा।” (योना 3:5) अमीर और गरीब, ताकतवर और कमज़ोर, जवान और बुज़ुर्ग, सभी ने पश्‍चाताप किया। इसकी खबर जल्द ही राजा के कानों तक पहुँची।

राजा के मन में भी परमेश्‍वर का डर समा गया। वह पश्‍चाताप करने के लिए अपनी राजगद्दी से उठा, अपने शाही कपड़े उतारे और टाट ओढ़कर “राख पर बैठ गया।” लोगों ने अपनी मरज़ी से जिस उपवास की शुरूआत की थी, उसे अब राजा और “प्रधानों” यानी दरबारियों ने मिलकर देश का कानून बना दिया। उसने हुक्म दिया कि सभी टाट ओढ़ें, यहाँ तक कि पालतू जानवर भी। * राजा ने नम्रता से कबूल किया कि उसकी प्रजा बुरे कामों और खून-खराबे के लिए दोषी है। उसे उम्मीद थी कि लोगों का पश्‍चाताप देखकर सच्चा परमेश्‍वर उन पर दया करेगा। इसलिए राजा ने कहा: ‘सम्भव है, परमेश्‍वर का भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नाश होने से बच जाएं।’—योना 3:6-9.

कुछ आलोचकों को यह यकीन करना मुश्‍किल लगता है कि नीनवे के लोग इतनी जल्दी बदल गए। मगर बाइबल के विद्वानों का कहना है कि प्राचीन समय में लोगों की इस तरह कायापलट होना कोई नयी बात नहीं थी। क्योंकि वे अंधविश्‍वासी थे और सुनी-सुनायी बातों पर आसानी से विश्‍वास कर लेते थे। मगर विद्वानों से भी बढ़कर सबूत हमें यीशु मसीह से मिलता है। उसने नीनवे के लोगों के पश्‍चाताप का ज़िक्र किया था। (मत्ती 12:41) वह इस बारे में इसलिए कह पाया, क्योंकि जब यह सब हो रहा था, तब यीशु स्वर्ग में था और सबकुछ होते देख रहा था। (यूहन्‍ना 8:57, 58) मगर अब सवाल यह है कि नीनवे के लोगों का पश्‍चाताप देखकर यहोवा ने क्या किया?

परमेश्‍वर की दया और इंसानों के कठोर न्याय में फर्क

योना ने बाद में लिखा: “जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।”—योना 3:10.

क्या इसका मतलब यह है कि नीनवे के लोगों को नाश करने का यहोवा का फैसला गलत था? जी नहीं। बाइबल यहोवा के बारे में कहती है: “उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्‍वर है, उस में कुटिलता नहीं।” (व्यवस्थाविवरण 32:4) नीनवे के रहनेवालों के बुरे कामों की वजह से यहोवा का क्रोध भड़का ज़रूर था, मगर उनका पश्‍चाताप देखकर उसका गुस्सा काफूर हो गया। यहोवा ने गौर किया कि लोग बदल गए हैं, इसलिए उसे लगा कि ऐसे में उन्हें सज़ा देना सही नहीं होगा। जी हाँ, यह समय था कि परमेश्‍वर नीनवे के लोगों पर दया करे।

यहोवा कठोर नहीं कि एक बार कुछ करने की ठान ले, तो टस-से-मस न हो। ना ही वह पत्थरदिल है जैसे ज़्यादातर धर्म-अधिकारी सिखाते हैं। इसके बिलकुल उलट, वह दयालु है, दूसरों के लिए लिहाज़ दिखाता है और हालात के मुताबिक अपने इरादे बदलने के लिए तैयार रहता है। वह दुष्टों को नाश करने से पहले उन्हें चेतावनी देता है। इसके लिए वह धरती पर अपने नुमाइंदों को उनके पास भेजता है। यहोवा ऐसा इसलिए करता है, क्योंकि वह चाहता है कि दुष्ट लोग नीनवे के लोगों की तरह पश्‍चाताप करें और बुराई का रास्ता छोड़ दें। (यहेजकेल 33:11) यहोवा ने अपने भविष्यवक्‍ता यिर्मयाह से कहा: “जब मैं किसी जाति वा राज्य के विषय कहूं कि उसे उखाड़ूंगा वा ढा दूंगा अथवा नाश करूंगा, तब यदि उस जाति के लोग जिसके विषय मैं ने कह बात कही हो अपनी बुराई से फिरें, तो मैं उस विपत्ति के विषय जो मैं ने उन पर डालने को ठाना हो पछताऊंगा।”—यिर्मयाह 18:7, 8.

तो क्या योना की भविष्यवाणी झूठी साबित हुई? नहीं, बल्कि जिस मकसद से भविष्यवाणी की गयी थी, वह मकसद पूरा हुआ। भविष्यवाणी का मकसद था, नीनवे के लोगों को चेतावनी देना, ताकि वे अपने बुरे कामों से मन फिराएँ। और उन्होंने ऐसा ही किया। लेकिन अगर नीनवे के लोग फिर से अपने दुष्ट कामों में लग जाते, तो यकीनन परमेश्‍वर उनका नाश कर डालता। और आगे चलकर यही हुआ।—सपन्याह 2:13-15.

जिस समय नीनवे का नाश होना था, उस समय जब उसका नाश नहीं हुआ, तब योना को कैसा लगा? बाइबल में हम पढ़ते हैं: “यह बात योना को बहुत ही बुरी लगी, और उसका क्रोध भड़का।” (योना 4:1) योना ने परमेश्‍वर से इस तरह प्रार्थना भी की मानो वह परमेश्‍वर को डाँट रहा हो! योना ने झुँझलाते हुए कहा, ‘इससे तो अच्छा था कि मैं अपने देश में ही रहता।’ वह सीना ठोककर बोला कि वह शुरू से ही जानता था कि यहोवा नीनवे का नाश नहीं करेगा। इसलिए जब पहली बार उसे नीनवे जाने के लिए कहा गया था, तब वह तर्शीश भाग गया। आखिर में योना ने गुस्से में परमेश्‍वर से कहा, ‘मेरे जीने से मर जाना बेहतर है।’—योना 4:2, 3.

योना के मन में क्या चल रहा था? यह हम नहीं जानते। लेकिन इतना ज़रूर जानते हैं कि योना ने नीनवे के सभी लोगों के सामने उनके विनाश का ऐलान किया था। और उन्होंने उस पर यकीन किया। मगर नीनवे पर कोई विनाश नहीं आया। तो क्या उसके दिल में यह डर बैठ गया कि लोग उसकी हँसी उड़ाएँगे या उसे झूठा भविष्यवक्‍ता कहेंगे? बात चाहे जो भी रही हो, सच यह है कि योना न तो लोगों के पश्‍चाताप से और ना ही यहोवा के दया दिखाने से खुश था। इसके बजाय, ऐसा लगता है कि उसका मन कड़वा हो गया था और वह खुद पर कुछ ज़्यादा ही तरस खा रहा था। उसे लगा जैसे उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गयी है। इसके बावजूद दयालु परमेश्‍वर ने योना में अच्छाई देखी, जो दुख के बोझ तले दबा जा रहा था। इसलिए उसने योना को अपनी तौहीन करने की सज़ा नहीं दी, बल्कि उससे प्यार से एक सवाल पूछा: “तेरा जो क्रोध भड़का है, क्या वह उचित है?” (योना 4:4) क्या योना ने इस सवाल का जवाब दिया? इस बारे में बाइबल कुछ नहीं बताती।

यहोवा ने योना को दया का सबक कैसे सिखाया

भविष्यवक्‍ता मुँह फुलाकर नीनवे से चला गया। पर वह अपने घर नहीं लौटा, बल्कि पूरब की ओर गया, जहाँ के पहाड़ी इलाके से पूरा नीनवे दिखायी देता था। वहाँ उसने एक छप्पर बनाया और उसकी छाया में बैठ गया और देखने लगा कि नीनवे का क्या होगा। शायद उसे अब भी उम्मीद थी कि वह शहर खाक में मिल जाएगा। आखिर यहोवा ने इस सख्तदिल इंसान को दया का सबक कैसे सिखाया?

यहोवा ने एक ही रात में लौकी का पौधा उगाया। सुबह जब योना की नींद खुली तो उसने देखा कि एक हरा-भरा पौधा उग आया है, जिसकी चौड़ी-चौड़ी पत्तियाँ उसे छाया दे रही हैं। यह छाया उसके बनाए कमज़ोर छप्पर से कहीं ज़्यादा अच्छी थी। “योना उस रेंड़ के पेड़ [‘लौकी के पौधे,’ NW] के कारण बहुत ही आनन्दित हुआ।” उसने सोचा होगा, यह चमत्कार इस बात की निशानी है कि उस पर परमेश्‍वर की आशीष और मंज़ूरी है। मगर यहोवा का मकसद योना को सिर्फ धूप से बचाना नहीं था और ना ही उसका गुस्सा ठंडा करना था। परमेश्‍वर उसके दिल तक पहुँचना चाहता था। इसलिए उसने एक कीड़ा भेजा, जिसके काटने पर वह पौधा मुर्झा गया। इसके बाद “परमेश्‍वर ने पुरवाई बहाकर लू चलाई” और योना गर्मी से “मूर्च्छा” खाने लगा। योना हताश हो गया और परमेश्‍वर से कहने लगा कि उसे मौत दे दे।—योना 4:6-8.

यहोवा ने एक बार फिर योना से पूछा कि क्या उसका गुस्सा करना सही है और वह भी सिर्फ इसलिए कि लौकी का पौधा मुर्झा गया? अपनी गलती मानने के बजाय योना ने कहा: “मेरा जो क्रोध भड़का है वह अच्छा ही है, वरन क्रोध के मारे मरना भी अच्छा होता।” यहोवा के लिए योना को सबक सिखाने का यह अच्छा मौका था।—योना 4:9.

परमेश्‍वर ने योना से तर्क किया। उसने भविष्यवक्‍ता से कहा कि वह उस पौधे के मुर्झा जाने पर क्यों इतना दुखी हो रहा है, जिस पौधे को उसने न तो लगाया, ना ही उसकी देखभाल की। परमेश्‍वर ने आखिर में कहा: “यह बड़ा नगर नीनवे, जिस में एक लाख बीस हजार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत घरैलू पशु भी उस में रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊं?”—योना 4:10, 11. *

क्या आप यह समझ पाए कि लौकी के पौधे से यहोवा ने योना को क्या सबक सिखाया? उस पौधे को उगाने में योना ने कुछ भी मेहनत नहीं की थी। मगर जहाँ तक नीनवे के लोगों की बात है, यहोवा उनका जीवनदाता था। और उसने उन्हें जीवित रखा था, जैसे धरती के दूसरे प्राणियों को बचाए रखता है। तो फिर, योना के लिए वह पौधा, नीनवे के 1,20,000 इंसानों और उनके तमाम पालतू जानवरों की ज़िंदगी से ज़्यादा कीमती कैसे हो गया? क्या इसकी वजह यह नहीं थी कि योना स्वार्थी बन गया था? क्या उसने उस पौधे पर सिर्फ इसलिए तरस नहीं खाया, क्योंकि वह उसे छाया दे रहा था? उसी तरह, नीनवे के लोगों पर जब उसका गुस्सा भड़का, तो इसके पीछे भी उसका स्वार्थ था। उसमें घमंड था और उसे अपनी नाक रखने की ज़्यादा चिंता थी।

दया दिखाने का क्या ही बढ़िया सबक! पर सवाल है कि क्या योना ने इस सबक को अपने दिलो-दिमाग में उतारा? बाइबल की किताब योना, यहोवा के पूछे सवाल पर खत्म होती है। आज भी वह सवाल मानो सवाल बनकर रह गया है। इसलिए कुछ आलोचक शिकायत करते हैं कि योना ने इस सवाल का जवाब कभी नहीं दिया। लेकिन अगर हम गौर करें, तो खुद उसकी किताब इस सवाल का जवाब देती है। वह कैसे? सबूत दिखाते हैं कि योना ने ही यह किताब लिखी है। उसने शायद यह किताब अपने देश लौटने के बाद लिखी होगी। ज़रा कल्पना कीजिए, वह अपने घर पर बैठा अपनी कहानी लिख रहा है। उसकी उम्र ढल चुकी है। वह अब पहले से ज़्यादा नम्र और बुद्धिमान हो गया है। अपनी गलतियों, बगावती और कठोर रवैए के बारे में लिखते वक्‍त उसके दिल में कैसी हूक-सी उठी होगी। इससे साफ है, योना ने यहोवा की बुद्धि-भरी हिदायतों से सबक सीखा। आखिरकार, उसने दया दिखाना सीख ही लिया। क्या हम भी दया दिखाना सीखेंगे? (w09 4/1)

[फुटनोट]

^ अप्रैल-जून 2009 की प्रहरीदुर्ग पत्रिका में यह लेख देखिए, “उनके विश्‍वास की मिसाल पर चलिए—उसने अपनी गलतियों से सबक सीखा।”

^ अनुमान लगाया गया है कि योना के दिनों में इसराएल की राजधानी, सामरिया में करीब 20,000 से 30,000 लोग रहे होंगे। इससे पता चलता है कि सामरिया की आबादी, नीनवे की आबादी की एक-चौथाई भी नहीं थी। जब नीनवे शहर फल-फूल रहा था, तब शायद यह पूरी दुनिया का सबसे बड़ा शहर रहा होगा।

^ यह बात शायद अजीब लगे, लेकिन यह दस्तूर पुराने ज़माने में आम था। यूनानी इतिहासकार हिरॉडटस ने बताया कि प्राचीन समय में जब फारस देश में एक जाने-माने सेनापति की मौत होती थी, तो लोग मातम मनाने में अपने भेड़-बकरियों और गाय-बैलों को भी शामिल करते थे।

^ जब परमेश्‍वर ने कहा कि नीनवे के लोग अपने दाएँ और बाएँ हाथों का भेद नहीं पहचानते, तो उसका मतलब था कि वे बिलकुल बच्चों जैसे थे, जो परमेश्‍वर के स्तरों से अनजान होते हैं।

[पेज 16 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

परमेश्‍वर चाहता है कि दुष्ट लोग नीनवे के लोगों की तरह पश्‍चाताप करें और बुराई का रास्ता छोड़ दें

[पेज 17 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

परमेश्‍वर ने लौकी के पौधे के ज़रिए योना को दया दिखाने का सबक सिखाया