सुखी परिवार का राज़
जब आपका नौजवान आपके धार्मिक विश्वास पर सवाल उठाए
कई बच्चे बड़े होने पर अपने माँ-बाप का धर्म अपना लेते हैं। (2 तीमुथियुस 3:14) मगर कुछ नौजवान ऐसा नहीं करते। अगर आपका बच्चा आपके धार्मिक विश्वास पर सवाल उठाने लगे, तो आप क्या कर सकते हैं? इस लेख में बताया गया है कि यहोवा के साक्षी इस चुनौती का सामना कैसे करते हैं।
“मैं अपने मम्मी-पापा का धर्म और नहीं मान सकती। अब मुझसे यह नहीं होगा।”—कुहू, 18 साल। *
आपको पूरा यकीन है कि आपका धर्म परमेश्वर के बारे में सच्चाई सिखाता है। आप मानते हैं कि बाइबल में ही जीने का सबसे बेहतरीन तरीका बताया गया है। इसलिए ज़ाहिर-सी बात है कि आप अपने बच्चे को भी यही बातें सिखाना चाहते हैं। (व्यवस्थाविवरण 6:6, 7) लेकिन तब क्या, जब आपका नौजवान इन सब बातों में पहले जैसी दिलचस्पी नहीं दिखाता? * बचपन में वह जिस धार्मिक विश्वास को खुशी-खुशी मानता था, अगर वह उसी पर सवाल उठाने लगे तब क्या?—गलातियों 5:7.
अगर आपके घर में ऐसा हो रहा है, तो यह मत सोचिए कि आप एक अच्छे मसीही माँ-बाप नहीं बन पाए। इसकी कुछ दूसरी वजह हो सकती है, जैसा कि हम आगे देखेंगे। मगर एक बात का ध्यान रखिए: इस दौरान आप अपने बच्चे के साथ कैसे पेश आते हैं, उससे तय होगा कि आपके धर्म पर उसका विश्वास मज़बूत होगा या कमज़ोर। अगर इस मसले को लेकर आप अपने बच्चे के खिलाफ जंग का ऐलान कर देते हैं, तो कुछ हासिल नहीं होगा। उलटा आपकी हार होगी।—कुलुस्सियों 3:21.
बुद्धिमानी इसी में है कि आप प्रेषित पौलुस की सलाह मानें: “प्रभु के दास को लड़ने की ज़रूरत नहीं बल्कि ज़रूरी है कि वह सब लोगों के साथ नर्मी से पेश आए, सिखाने की काबिलीयत रखता हो और . . . खुद को काबू में रखे।” (2 तीमुथियुस 2:24) अगर आपका बेटा आपके विश्वास पर सवाल उठाता है, तो आप कैसे दिखा सकते हैं कि आप “सिखाने की काबिलीयत” रखते हैं?
जानने की कोशिश कीजिए
सबसे पहले यह जानने की कोशिश कीजिए कि आपके धर्म में आपके बच्चे की दिलचस्पी क्यों खत्म हो रही है। मिसाल के लिए:
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क्या वह अकेला महसूस करता है और उसे लगता है कि मसीही मंडली में उसका कोई दोस्त नहीं? “मंडली में मेरी एक भी दोस्त नहीं थी। इस वजह से मैंने अपने स्कूल में बहुत-से दोस्त बना लिए। धीरे-धीरे परमेश्वर की उपासना से मेरा मन हटने लगा और मैं लंबे समय तक परमेश्वर के साथ एक करीबी रिश्ता नहीं बना पायी। मुझे अपनी गलतियों पर बहुत अफसोस है।”—लावण्या, 19 साल।
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क्या उसमें आत्म-विश्वास की कमी है, जिस वजह से वह अपने धर्म के बारे में दूसरों को बताने से घबराता है? “स्कूल में मैं अपनी क्लास के बच्चों को अपने धर्म के बारे में बताने से हिचकिचाता था। मुझे डर था कि कहीं वे मुझे ‘पादरी’ कहकर न चिढ़ाएँ। जो भी बच्चा दूसरों से अलग होता था, कोई उसे पसंद नहीं करता था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे साथ भी ऐसा हो।”—जेम्स, 23 साल।
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क्या उसे लगता है कि मसीही स्तरों के मुताबिक जीना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है जिसे वह निभा नहीं पाएगा? “मुझे लगता है कि बाइबल में बतायी ‘हमेशा की ज़िंदगी’ पाना बहुत मुश्किल है। यह ऐसा है मानो मैं एक लंबी सीढ़ी के नीचे खड़ी हूँ और यह वादा सबसे ऊपर की सीढ़ी पर है। वहाँ पहुँचना तो दूर, मैंने अभी तक पहली सीढ़ी पर कदम भी नहीं रखा है। सीढ़ी पर चढ़ने के खयाल से ही मैं इतना डर जाती हूँ कि सोचती हूँ, अपने धार्मिक विश्वास को छोड़ देना ही अच्छा है।”—रीना, 16 साल।
उससे बात कीजिए
क्या आपको पता है कि आपके बच्चे के मन में क्या चल रहा है? जानने का सबसे अच्छा तरीका है, उससे बात करना। मगर ध्यान रखिए कि बातचीत करते-करते आप दोनों के बीच बहस न छिड़ जाए। इसके बजाय याकूब 1:19 की सलाह मानिए: “हर इंसान सुनने में फुर्ती करे, बोलने में सब्र करे, और क्रोध करने में धीमा हो।” अपने बच्चे के साथ धीरज से पेश आइए और उससे बात करते वक्त “पूरी सहनशीलता और सिखाने की कला” दिखाइए, ठीक जैसा आप किसी बाहरवाले के साथ करेंगे।—2 तीमुथियुस 4:2.
मिसाल के लिए अगर आपका नौजवान, मसीही सभाओं में जाने से मना कर रहा है, तो जानने की कोशिश कीजिए कि कहीं कोई बात उसे परेशान तो नहीं कर रही। लेकिन इस दौरान अपना धीरज मत खोइए। नीचे दिए हालात में पिता जिस तरह अपने बेटे से बात करता है, उससे कुछ हासिल नहीं होता।
बेटा: अब से मैं सभाओं में नहीं जाना चाहता, मुझे अच्छा नहीं लगता।
पिता: [भड़ककर] क्या मतलब अच्छा नहीं लगता?
बेटा: वहाँ मैं बहुत बोर हो जाता हूँ।
पिता: अच्छा! तो अब तुम्हें परमेश्वर बोरिंग लगने लगा है? मैं कोई बहाना नहीं सुननेवाला। जब तक तुम मेरे घर में रह रहे हो, तुम्हें सभाओं में आना ही होगा, फिर चाहे तुम्हारा मन हो या न हो।
परमेश्वर चाहता है कि माता-पिता उसके बारे में बच्चों को सिखाएँ और बच्चे माता-पिता का कहना मानें। (इफिसियों 6:1) लेकिन आप हरगिज़ नहीं चाहेंगे कि मसीही कामों का आपका जो शेड्यूल है, बच्चा आँख मूँदकर उसे मानता जाए और आधे-अधूरे मन से सभाओं में आए। बल्कि आप चाहेंगे कि वह सभाओं में इसलिए आए क्योंकि वह यहोवा से प्यार करता है और दिल से वहाँ आना चाहता है।
ऐसा करने में आप तभी कामयाब हो सकते हैं जब आप यह समझ पाएँ कि उसके रवैए में आनेवाले बदलाव की असल वजह क्या है। इस बात को ध्यान में रखते हुए आइए देखें कि ऊपर बताए हालात में पिता को अपने बेटे से किस तरह बात करनी चाहिए थी।
बेटा: अब से मैं सभाओं में नहीं जाना चाहता, मुझे अच्छा नहीं लगता।
पिता: [शांति से] बात क्या है बेटा?
बेटा: वहाँ मैं बहुत बोर हो जाता हूँ।
पिता: मानता हूँ बेटा, एक-दो घंटे बैठे रहना वाकई मुश्किल हो सकता है। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह है या कोई और बात है?
बेटा: पता नहीं। सभाओं में जाने से तो अच्छा है कि मैं कहीं और चला जाऊँ।
पिता: क्या मंडली में तुम्हारे दोस्तों को भी ऐसा लगता है?
बेटा: वही तो प्रौब्लम है, मेरा कोई दोस्त नहीं। जब से मेरा जिगरी दोस्त यहाँ से गया है, मैं बिलकुल अकेला हो गया हूँ। सब अपने दोस्तों के साथ मज़ा करते हैं, सिवाय मेरे।
ऊपर बताए हालात में पिता ने जिस तरह अपने बेटे से सवाल “सब्र से काम लीजिए” देखिए।
किए, उससे बेटा अपने दिल की बात बता सका। इस तरह पिता न सिर्फ समस्या की जड़ तक पहुँच पाया कि बेटा अकेलेपन से जूझ रहा है, बल्कि बेटे का भरोसा भी जीत पाया ताकि आगे भी वह उसे अपने दिल की बात बताता रहे।—यहाँ दिया बक्ससमय के साथ-साथ बहुत-से जवान समझ जाते हैं कि अगर वे उन चुनौतियों का सामना करें, जो उन्हें परमेश्वर के करीब आने से रोक रही हैं, तो उनका आत्म-विश्वास बढ़ेगा और मसीही स्तरों के मुताबिक जीने का उनका इरादा पक्का होगा। जेम्स के बारे में गौर कीजिए। जैसा हमने पढ़ा था, शुरू-शुरू में वह स्कूल में खुद को मसीही कहलाने से कतराता था। लेकिन फिर उसने देखा कि हालाँकि उसकी खिल्ली उड़ायी गयी, मगर अपने विश्वास के बारे में बताना उतना डरावना नहीं था जितना उसने सोचा था। वह कहता है:
“एक दिन की बात है। क्लास में एक लड़का मेरे धर्म को लेकर मेरा मज़ाक उड़ा रहा था। मैं बहुत घबरा गया, सबकी नज़रें मुझ पर थीं। फिर मैंने सोचा, क्यों न मैं पासा पलट दूँ और उलटा उसी से उसके विश्वास के बारे में सवाल करूँ। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि वह मुझसे भी ज़्यादा घबराया हुआ था। तब मुझे एहसास हुआ कि बहुत-से नौजवान अपने धर्म को मानते तो हैं, लेकिन उन्हें खुद सही-सही नहीं पता होता कि वे क्या मानते हैं और क्यों मानते हैं। मगर मैं कम-से-कम अपने विश्वास के बारे में दूसरों को समझा तो सकता हूँ। सच, जब अपने धार्मिक विश्वास के बारे में बताने की बात आती है, तो मेरी क्लास के साथियों को हिचकिचाहट होनी चाहिए, मुझे नहीं!”
इसे आज़माइए: अपने बच्चे से पूछिए कि एक मसीही होने के बारे में वह कैसा महसूस करता है। उसके हिसाब से मसीही होने के क्या फायदे हैं? और मसीही होने की वजह से उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है? क्या उसे लगता है कि उन फायदों के आगे ये परेशानियाँ कुछ भी नहीं? अगर हाँ, तो इस बारे में उसे खुलकर समझाने के लिए कहिए। (मरकुस 10:29, 30) वह चाहे तो अपने विचार एक कागज़ पर लिख सकता है। वह दो कॉलम बना सकता है, एक कॉलम में वह मसीही होने के फायदों के बारे में लिख सकता है और दूसरे में परेशानियों के बारे में। अपने विचारों को कागज़ पर उतारने से आपका लड़का अपनी समस्या पहचान पाएगा और उसका हल भी ढूँढ़ पाएगा।
आपके नौजवान की “सोचने-समझने की शक्ति”
माता-पिता और विशेषज्ञों ने पाया है कि छोटे बच्चों और नौजवानों की सोच में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। (1 कुरिंथियों 13:11) छोटे बच्चे हर बात पर फौरन यकीन कर लेते हैं, लेकिन बड़े बच्चे ऐसे नहीं होते। वे बातों को तौलते हैं और सवाल करते हैं। मिसाल के लिए, एक छोटे बच्चे को अगर सिखाया जाए कि सारी चीज़ें परमेश्वर ने बनायी हैं, तो वह उसे झट-से मान लेगा। (उत्पत्ति 1:1) लेकिन यही बात अगर एक नौजवान को सिखायी जाए तो वह आपसे ढेरों सवाल करेगा। जैसे, ‘मैं कैसे मान लूँ कि परमेश्वर है या नहीं? अगर परमेश्वर हमसे प्यार करता है तो बुराई को क्यों रहने देता है? यह कैसे हो सकता है कि परमेश्वर की कोई शुरूआत नहीं है?’—भजन 90:2.
इन सवालों से शायद आपको लगे कि आपका लड़का विश्वास में कमज़ोर हो रहा है। लेकिन असल में देखा जाए तो वह तरक्की कर रहा है। क्योंकि सवाल पूछना एक अहम ज़रिया हो सकता है जिससे एक मसीही, परमेश्वर के बारे में अपनी समझ में बढ़ता जाए।—इतना ही नहीं, सवाल पूछकर वह “अपनी सोचने-समझने की शक्ति का इस्तेमाल” करना सीख रहा है। (रोमियों 12:1, 2) इस तरह वह मसीही विश्वास की “चौड़ाई, लंबाई, ऊँचाई और गहराई” को समझ पा रहा है, जो शायद ही वह बचपन में कर पाता। (इफिसियों 3:18) आपके लड़के के लिए अपने धार्मिक विश्वास पर सोच-विचार करने का यही सही वक्त है, ताकि उसे यकीन हो जाए कि वह जो कुछ मानता है वह सही है।—नीतिवचन 14:15; प्रेषितों 17:11.
इसे आज़माइए: अपने नौजवान के साथ उन बुनियादी विषयों पर चर्चा कीजिए जिन्हें आप दोनों शायद शुरू से सच मानते आए हैं। मिसाल के लिए, उसे कुछ इस तरह के सवालों पर सोचने के लिए कहिए: ‘क्या बात मुझे यकीन दिलाती है कि परमेश्वर सचमुच में है? मैं अपने चारों तरफ क्या सबूत देखता हूँ जो ज़ाहिर करते हैं कि परमेश्वर को मेरी परवाह है? मुझे क्यों लगता है कि परमेश्वर के नियमों को मानने से हमेशा मेरा भला होगा?’ ध्यान रखिए कि आप अपने विचार अपने लड़के पर न थोपें, बल्कि उसकी मदद कीजिए कि वह खुद सबकुछ परखकर देखे। इस तरह उसे भरोसा हो जाएगा कि उसका विश्वास सच्चा है।
“दलीलें देकर यकीन दिलाया गया”
बाइबल में तीमुथियुस नाम के एक जवान के बारे में बताया गया है। जब वह “शिशु था” तब से उसे पवित्र शास्त्र के बारे में सिखाया गया था। फिर भी प्रेषित पौलुस ने उसे उकसाया: “जो बातें तू ने सीखी हैं और जिनका तुझे दलीलें देकर यकीन दिलाया गया था, उन्हीं बातों पर कायम रह।” (2 तीमुथियुस 3:14, 15) शायद आपने भी अपने लड़के को तीमुथियुस की तरह बचपन से बाइबल के स्तरों के बारे में सिखाया हो। लेकिन अब आपको उसे दलीलें देकर यकीन दिलाना होगा कि उन स्तरों को मानना सही है। इससे वह अपना विश्वास बढ़ा सकेगा।
किताब, क्वेश्चन्स यंग पीपल आस्क—आंसर्स दैट वर्क, वॉल्यूम 1 कहती है: “जब तक आपका नौजवान आपके साथ रह रहा है, तब तक आपके पास यह माँग करने का अधिकार है कि उपासना के मामले में परिवार का जो शेड्यूल है, वह उस पर चले। मगर आखिर में आपका लक्ष्य यही होना चाहिए कि आप अपने बच्चे के दिल में परमेश्वर के लिए प्यार जगाएँ, न कि उसे एक चलती-फिरती मशीन बनाएँ जो बिना सोचे-समझे आपकी हर बात मानता जाए।” इस लक्ष्य को ध्यान में रखने से आप अपने बच्चे को “विश्वास में मज़बूत” बनने में मदद दे सकते हैं। ऐसा करने से वह आपकी तरह परमेश्वर की उपासना को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देने लगेगा। *—1 पतरस 5:9. (w12-E 02/01)
^ इस लेख में नाम बदल दिए गए हैं।
^ समझने में आसानी हो, इसलिए हमने इस लेख में किशोर बच्चे को लड़का बताया है। लेकिन इसमें दिए सिद्धांत लड़का-लड़की दोनों पर लागू होते हैं।
^ ज़्यादा जानकारी के लिए अक्टूबर-दिसंबर 2009 की प्रहरीदुर्ग के पेज 10-12 और अक्टूबर-दिसंबर 2011 की सजग होइए! के पेज 16-19 देखिए।
खुद से पूछिए . . .
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जब मेरा बच्चा मेरे धार्मिक विश्वासों पर सवाल उठाता है, तो मैं कैसा रवैया दिखाता हूँ?
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इस लेख में दी जानकारी की मदद से मैं अपने रवैए में किस तरह सुधार ला सकता हूँ?