अय्यूब 17:1-16
17 मेरी हिम्मत टूट चुकी है, मेरे दिन खत्म होनेवाले हैं,कब्र मेरी राह देख रही है।+
2 ठट्ठा करनेवाले मुझे चारों ओर से घेरे रहते हैं,+मैं देखता* रहता हूँ कि वे मुझसे कैसी दुश्मनी निकालते हैं।
3 हे परमेश्वर, मुझे छुड़ाने का ज़िम्मा ले ले,*
तेरे सिवा कौन है जो हाथ मिलाकर मदद देने का वादा करे?+
4 तूने उनका मन बंद कर दिया है, उनमें ज़रा भी सूझ-बूझ नहीं+और तू उन्हें ऊँचा नहीं उठाता।
5 ऐसा इंसान अपने दोस्तों में बाँटता फिरता है,जबकि उसके बच्चों की आँखें तरसती रह जाती हैं।
6 परमेश्वर ने लोगों के बीच मेरा मज़ाक* बना दिया है,+मेरा यह हाल कर दिया है कि वे मेरे मुँह पर थूकते हैं।+
7 दुख के मारे मेरी आँखें बुझी-बुझी-सी हैं,+मेरा अंग-अंग घुलता जा रहा है।
8 मेरा हाल देखकर सीधे-सच्चे लोग दंग रह जाते हैंऔर निर्दोष लोग, भक्तिहीन के कारण गुस्से से भर जाते हैं।
9 लेकिन नेक इंसान अपनी राह पर बना रहेगा,+जो बेकसूर* है, वह ताकतवर होता जाएगा।+
10 तुम सब आओ और फिर से दलीलें देना शुरू करोक्योंकि अब तक तुममें से किसी ने बुद्धि की बातें नहीं कहीं।+
11 मेरे दिन खत्म हो चुके हैं,+मैंने जो-जो सोचा था, मेरे जितने अरमान थे, सब बिखर गए।+
12 मेरे साथी रात को दिन बताते हैं,कहते हैं ‘सवेरा होनेवाला है!’ पर मुझे तो अँधेरा ही नज़र आता है।
13 अगर यूँ ही इंतज़ार करता रहा, तो कब्र मेरा घर बन जाएगी,+मुझे अँधेरे में अपना बिस्तर बिछाना पड़ेगा।+
14 मैं गड्ढे*+ से कहूँगा, ‘तू मेरा पिता है।’
कीड़ों से कहूँगा, ‘तू मेरी माँ है और तू मेरी बहन।’
15 ऐसे में मेरे लिए क्या आशा है?+
क्या किसी को मेरे लिए कोई उम्मीद नज़र आती है?
16 वह* तो कब्र के बंद दरवाज़ों के पीछे कैद हो जाएगी,तब मैं और मेरी आशा मिट्टी में मिल जाएँगे।”+
कई फुटनोट
^ या “सोचता।”
^ या “मेरा ज़ामिन बन जा।”
^ शा., “कहावत।”
^ शा., “जिसके हाथ शुद्ध हैं।”
^ या “कब्र।”
^ यानी मेरी आशा।