अय्यूब 21:1-34
21 जवाब में अय्यूब ने कहा,
2 “मेरी बात ध्यान से सुनो,इस तरह तुम मुझे दिलासा दोगे।
3 मैं क्या कहना चाहता हूँ पहले सुन तो लो,फिर जितनी खिल्ली उड़ानी है उड़ा लेना।+
4 क्या मैं किसी इंसान के सामने अपना दुखड़ा रो रहा हूँ?
अगर ऐसा होता तो मेरा सब्र कब का टूट चुका होता।
5 मुझे गौर से देखो, तुम दंग रह जाओगे,अपने मुँह पर हाथ रख लोगे।
6 जो मुझ पर बीती, उसे सोचकर मैं परेशान हो उठता हूँ,मेरा शरीर थर-थर काँपने लगता है।
7 ऐसा क्यों है कि दुष्ट लंबी उम्र जीता है,+सुख से रहता है, दौलतमंद* हो जाता है?+
8 उसके बच्चे उसके सामने फलते-फूलते हैं,वह अपनी कई पीढ़ियाँ देखता है,
9 उसका घर महफूज़ है, उसे कोई डर नहीं सताता,+परमेश्वर उसे अपनी छड़ी से सज़ा नहीं देता।
10 उसके बैल, गायों को गाभिन करते हैंऔर उसकी गायें बच्चे जनती हैं, एक का भी गर्भ नहीं गिरता।
11 उसके लड़के मस्ती में नाचते हैं,ऐसे कूदते-फाँदते घर से निकलते हैं, जैसे भेड़ों को खोल दिया गया हो।
12 वह डफली और सुरमंडल पर गाता है,बाँसुरी की धुन पर खुशियाँ मनाता है।+
13 उसकी ज़िंदगी मज़े में कटती है,वह चैन से* कब्र में उतर जाता है।
14 वह सच्चे परमेश्वर से कहता है, ‘मुझे अकेला छोड़ दे,
नहीं जानना मुझे तेरी राहों के बारे में।+
15 सर्वशक्तिमान कौन है जो मैं उसकी सेवा करूँ?+
उसके बारे में सीखकर मुझे क्या फायदा?’+
16 मगर मैं जानता हूँ, दुष्ट की खुशहाली उसके बस में नहीं।+
उसकी सोच* उसी को मुबारक हो, उससे मेरा कोई वास्ता नहीं।+
17 क्या कभी दुष्टों के दीपक बुझे हैं?+
क्या कभी उन पर आफत टूटी है?
क्या कभी परमेश्वर ने क्रोध में उनका नाश किया है?
18 क्या कभी हवा उन्हें घास-फूस की तरह उड़ा पायी है?क्या कभी आँधी का झोंका उन्हें भूसी की तरह उड़ा पाया है?
19 परमेश्वर उनके पाप की सज़ा उनके बेटों के लिए भी रख छोड़ता है।
काश! दुष्ट को पता चल जाए कि परमेश्वर उसे उसकी दुष्टता का सिला दे रहा है।+
20 ऐसा हो कि वह अपनी आँखों से अपनी बरबादी देखे,सर्वशक्तिमान के क्रोध का प्याला पीए।+
21 जब दुष्ट की ज़िंदगी के महीने कम कर दिए जाएँगे,तो उसके बाद उसके बाल-बच्चों का क्या होगा, उसे क्या चिंता!+
22 क्या कोई परमेश्वर को ज्ञान की बातें सिखा सकता है?*+वह तो बड़े-बड़ों का न्याय करता है।+
23 ऐसा इंसान भी मर जाता है जिसमें दमखम हो,+जो बेफिक्र होकर चैन की ज़िंदगी जी रहा हो,+
24 जिसकी जाँघें भरी-भरी हों,जिसकी हड्डियों में जान हो।*
25 और ऐसा इंसान भी मर जाता है जो दिन-रात आहें भरता है,जिसने कभी कोई सुख नहीं देखा।
26 दोनों मिट्टी में मिल जाते हैं+और दोनों को ही कीड़े ढक लेते हैं।+
27 देखो, मैं खूब जानता हूँ तुम क्या सोच रहे हो,मुझ पर ज़्यादती करने* के लिए तुम क्या साज़िश कर रहे हो।+
28 यही पूछते हो न तुम, ‘बड़े-बड़े लोगों का घर कहाँ रहा?दुष्टों का डेरा कहाँ गया?’+
29 ज़रा मुसाफिरों से पूछकर देखो,
उनकी बातों* पर गौर करो,
30 तब तुम जानोगे, विपत्ति के दिन दुष्ट को छोड़ दिया जाता है,मुसीबत आने पर वह बच निकलता है।
31 पर कौन दुष्ट के मुँह पर कहेगा कि तेरे काम बुरे हैं?कौन उसकी बुराइयों का बदला उसे देगा?
32 जब उसे दफनाने के लिए ले जाया जाता है,तब उसकी कब्र पर पहरा बिठाया जाता है,
33 कब्र की मिट्टी भी उसके लिए मुलायम सेज बिछाती है,+उससे पहले भी अनगिनत लोग मिट्टी में मिल गएऔर उसके बाद भी कई लोग मिल जाएँगे।+
34 तो फिर क्यों मुझे बेकार में दिलासा दे रहे हो,+
तुम्हारी बातों में झूठ और धोखे के सिवा कुछ नहीं।”
कई फुटनोट
^ या “ताकतवर।”
^ या “पल-भर में।” यानी दर्दनाक मौत नहीं मरता बल्कि तुरंत मर जाता है।
^ या “सलाह; साज़िश।”
^ या “परमेश्वर को कुछ सिखा सकता है?”
^ शा., “हड्डियाँ गूदे से भरी हों।”
^ या शायद, “मुझे चोट पहुँचाने।”
^ या “उनके सबूतों।”