अय्यूब 24:1-25
24 सर्वशक्तिमान ने एक समय क्यों नहीं ठहराया?+
परमेश्वर को जाननेवाले उसका दिन* क्यों नहीं देख पाते?
2 दुष्ट अपने पड़ोसी की ज़मीन का सीमा-चिन्ह खिसकाते हैं,+दूसरों की भेड़ें हाँककर अपने चरागाह में ले जाते हैं।
3 वे अनाथ का गधा छीन ले जाते हैं,विधवा का बैल ज़बरदस्ती गिरवी रख लेते हैं।+
4 गरीब को रास्ता छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं,वह बेबस इंसान उनसे छिपता फिरता है।+
5 वह वीराने के जंगली गधे+ की तरह खाना ढूँढ़ता फिरता है,अपने बच्चों का पेट भरने के लिए रेगिस्तान छान मारता है।
6 उसे दूसरों के खेत में जाकर फसल काटनी पड़ती है,*दुष्टों के बाग से बचे हुए अंगूर बीनने पड़ते हैं।
7 उसके पास कपड़े नहीं हैं, वह सारी रात नंगा पड़ा रहता है,+ठंड में भी उसके पास ओढ़ने के लिए कुछ नहीं होता।
8 वह पहाड़ों पर होनेवाली बारिश में भीग जाता है,छिपने की जगह न मिलने पर चट्टानों से लिपट जाता है।
9 अनाथ को उसकी माँ के सीने से छीन लिया जाता है,+गरीब के कपड़े तक गिरवी रख लिए जाते हैं,+
10 वह नंगा लौटने के लिए मजबूर हो जाता है,अनाज के गट्ठर उठाता है मगर खुद भूख से कुलबुलाता है।
11 वह खेतों* में मुँडेरों के बीच कड़ी धूप में मज़दूरी करता है,*अंगूर रौंदकर रस निकालता है, मगर खुद एक बूँद के लिए तरस जाता है।+
12 मरनेवालों का कराहना पूरे शहर में गूँज रहा है,बुरी तरह घायल लोग मदद के लिए पुकार रहे हैं,+मगर परमेश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता।*
13 ऐसे भी लोग हैं जिन्हें उजाले से नफरत है,+वे उसकी राह को नकारते हैंऔर उस पर चलना नहीं चाहते।
14 पौ फटते ही कातिल निकल पड़ता है,गरीब-मोहताजों का खून बहाता है+और रात के अँधेरे में वह चोरी करता है।
15 व्यभिचार करनेवाला शाम ढलने का इंतज़ार करता है।+
कहता है, ‘मुझे कोई नहीं देखेगा’+
और अपना चेहरा ढक लेता है।
16 अँधेरा होते ही चोर घरों में सेंध लगाता हैऔर सूरज उगते ही वह छिप जाता है।
वह उजाले को जानता ही नहीं।+
17 सुबह की रौशनी दुष्ट को घोर अंधकार जान पड़ती है,उसकी यारी उस अँधेरे से है जिससे दूसरे खौफ खाते हैं।
18 मगर तेज़ पानी उसे बहा ले जाएगा,*
उसकी ज़मीन पर शाप पड़ेगा,+
वह अपने अंगूरों के बाग में कभी नहीं लौट पाएगा।
19 जैसे तपती गरमी और बंजर ज़मीन बर्फीले पानी को सुखा देती है,वैसे ही कब्र पापी को निगल जाती है।+
20 उसकी माँ* उसे भूल जाएगी,
वह कीड़ों की दावत बन जाएगा,सबकी यादों से मिट जाएगा,+दुष्ट इंसान पेड़ की तरह टूटकर गिर जाएगा।
21 वह बाँझ औरतों को अपना शिकार बनाता है,विधवाओं के साथ बदसलूकी करता है।
22 ऐसे ज़ालिमों को परमेश्वर* अपनी ताकत से खत्म कर देगा,चाहे वे कितने ही ऊँचे उठें, उन्हें अपनी ज़िंदगी का भरोसा नहीं होगा।
23 दुष्टों को परमेश्वर* बेखौफ, बेफिक्र जीने देता है,+मगर उसकी आँखें उनके हर काम* पर लगी रहती हैं।+
24 कुछ समय के लिए वे फलते-फूलते हैं, फिर मुरझा जाते हैं,+
बाकी लोगों की तरह खत्म हो जाते हैं,+अनाज की बालों की तरह काट दिए जाते हैं।
25 अब बताओ, कौन मुझे झूठा साबित कर सकता है?कौन मेरी बातों को काट सकता है?”
कई फुटनोट
^ यानी उसके न्याय का दिन।
^ या शायद, “उसे खेत में चारा काटना पड़ता है।”
^ या “सीढ़ीदार खेतों।”
^ या शायद, “के बीच तेल पेरकर निकालता है।”
^ या शायद, “परमेश्वर किसी को दोषी नहीं ठहराता।”
^ शा., “वह पानी की सतह पर फुर्तीला है।”
^ शा., “गर्भ।”
^ शा., “वह।”
^ शा., “वह।”
^ शा., “उनकी राहों।”