इफिसियों के नाम चिट्ठी 4:1-32
4 इसलिए मैं जो प्रभु का चेला होने के नाते कैदी हूँ,+ तुमसे गुज़ारिश करता हूँ कि तुम्हारा चालचलन उस बुलावे के योग्य हो+ जो तुम्हें दिया गया है।
2 नम्रता,+ कोमलता और सब्र के साथ+ प्यार से एक-दूसरे की सहते रहो,+
3 अपने बीच शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश करो जो तुम्हें एकता के उस बंधन में बाँधे रखती है जिसे तुम पवित्र शक्ति से हासिल करते हो।+
4 एक ही शरीर है+ और एक ही पवित्र शक्ति है,+ ठीक जैसे वह आशा भी एक ही है+ जिसे पाने के लिए तुम बुलाए गए थे।
5 एक ही प्रभु है,+ एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मा।
6 और सबका एक ही परमेश्वर और पिता है, जो सबके ऊपर है और सबके ज़रिए और सबमें काम करता है।
7 मसीह ने हरेक को जो मुफ्त वरदान बाँटा है, उसी के मुताबिक हममें से हरेक पर महा-कृपा की गयी है।+
8 इसलिए शास्त्र कहता है, “जब वह ऊँचे पर चढ़ा तो बंदियों को ले गया। उसने आदमियों के रूप में तोहफे दिए।”+
9 ‘वह चढ़ा,’ इस बात का क्या मतलब है? यही कि वह निचले इलाकों यानी धरती पर उतरा भी था।
10 जो उतरा था वही पूरे स्वर्ग से भी ऊपर चढ़ा+ ताकि वह सब बातों को पूरा करे।
11 और उसने कुछ को प्रेषित,+ कुछ को भविष्यवक्ता,+ कुछ को प्रचारक,*+ कुछ को चरवाहे और शिक्षक ठहराया+
12 ताकि पवित्र जनों का सुधार* हो और वे सेवा का काम करें और मसीह का शरीर तब तक बढ़ता जाए+
13 जब तक कि हम सब विश्वास में और परमेश्वर के बेटे के सही ज्ञान में एकता हासिल न कर लें और पूरी तरह से विकसित* आदमी की तरह+ मसीह की पूरी कद-काठी हासिल न कर लें।
14 इसलिए हम अब से बच्चे न रहें जो झूठी बातों की लहरों से यहाँ-वहाँ उछाले जाते और शिक्षाओं के हर झोंके से इधर-उधर उड़ाए जाते हैं,+ क्योंकि वे ऐसे इंसानों की बातों में आ जाते हैं जो छल से और बड़ी चालाकी से धोखा देकर उन्हें बहका लेते हैं।
15 मगर आओ हम सच बोलें और सब बातों में प्यार से मसीह में बढ़ते जाएँ जो हमारा सिर* है।+
16 मसीह से शरीर के सारे अंग+ आपस में जुड़े हुए हैं और ज़रूरी काम करनेवाले हर जोड़ के ज़रिए एक-दूसरे को सहयोग देते हैं। जब शरीर का हर अंग सही तरीके से काम करता है तो इससे शरीर बढ़ता जाता है और प्यार में मज़बूत होता जाता है।+
17 इसलिए मैं प्रभु के सामने तुमसे यह कहता हूँ और तुम्हें सलाह देता हूँ कि तुम अब से दुनिया के लोगों की तरह न बनो+ जो अपने खोखले* विचारों के मुताबिक चलते हैं।+
18 वे अनजान बने रहते हैं और उनके दिल कठोर* हैं इसलिए वे दिमागी तौर पर अंधकार में हैं और उस ज़िंदगी से दूर हैं जो परमेश्वर देता है।
19 वे शर्म-हया की सारी हदें पार कर चुके हैं* इसलिए उन्होंने खुद को निर्लज्ज कामों*+ के हवाले कर दिया है ताकि हर तरह का अशुद्ध काम करते रहें और उसकी और भी लालसा करें।
20 मगर तुमने मसीह के बारे में ऐसी शिक्षा नहीं पायी
21 बशर्ते तुमने उससे सुना हो और उसके ज़रिए तुम्हें सिखाया गया हो क्योंकि सच्चाई यीशु में है।
22 तुम्हें सिखाया गया था कि तुम्हें अपनी पुरानी शख्सियत को उतार फेंकना चाहिए+ जो तुम्हारे पहले के चालचलन के मुताबिक है और जो उसकी गुमराह करनेवाली इच्छाओं के मुताबिक भ्रष्ट होती जा रही है।+
23 और तुम्हें अपनी सोच और अपने नज़रिए* को नया बनाते जाना है जो तुम पर हावी है+
24 और नयी शख्सियत को पहन लेना चाहिए,+ जो परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक रची गयी है और नेक स्तरों और सच्ची वफादारी की माँगों के मुताबिक है।
25 इसलिए जब तुमने छल-कपट को खुद से दूर कर दिया है, तो अब तुममें से हर कोई अपने पड़ोसी से सच बोले,+ क्योंकि हम एक ही शरीर के अलग-अलग अंग हैं।+
26 अगर तुम्हें क्रोध आए तो भी पाप मत करो।+ सूरज ढलने तक तुम्हारा गुस्सा न रहे+
27 और शैतान* को मौका मत दो।*+
28 जो चोरी करता है वह अब से चोरी न करे। इसके बजाय, वह कड़ी मेहनत करे और अपने हाथों से ईमानदारी का काम करे+ ताकि किसी ज़रूरतमंद को देने के लिए उसके पास कुछ हो।+
29 कोई बुरी* बात तुम्हारे मुँह से न निकले,+ मगर सिर्फ अच्छी बात निकले जो ज़रूरत के हिसाब से हिम्मत बँधाए ताकि सुननेवालों को फायदा हो।+
30 परमेश्वर की पवित्र शक्ति को दुखी मत करो,+ जिससे तुम पर उस दिन के लिए मुहर लगायी गयी है,+ जब फिरौती के ज़रिए तुम छुड़ाए जाओगे।+
31 हर तरह की जलन-कुढ़न,+ गुस्सा, क्रोध, चीखना-चिल्लाना और गाली-गलौज,+ साथ ही नुकसान पहुँचानेवाली हर बात को खुद से दूर करो।+
32 इसके बजाय, एक-दूसरे के साथ कृपा से पेश आओ और कोमल करुणा दिखाते हुए+ एक-दूसरे को दिल से माफ करो, ठीक जैसे परमेश्वर ने भी मसीह के ज़रिए तुम्हें दिल से माफ किया है।+
कई फुटनोट
^ या “खुशखबरी सुनानेवाले।”
^ या “प्रशिक्षण।”
^ या “सयाने।”
^ यानी मुखिया।
^ या “व्यर्थ; बेकार।”
^ शा., “सुन्न।”
^ शा., “उनका एहसास मिट चुका है।”
^ या “दिमाग को प्रेरित करनेवाली शक्ति।”
^ या “इबलीस को जगह मत दो।”
^ शा., “सड़ी हुई।”