याकूब की चिट्ठी 1:1-27
1 याकूब+ जो परमेश्वर का और प्रभु यीशु मसीह का दास है, उन 12 गोत्रों को लिखता है, जो चारों तरफ तितर-बितर हो गए हैं:
नमस्कार!
2 मेरे भाइयो, जब तुम तरह-तरह की परीक्षाओं से गुज़रो तो इसे बड़ी खुशी की बात समझो+
3 क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हारा परखा हुआ विश्वास धीरज पैदा करता है।+
4 मगर धीरज को अपना काम पूरा करने दो ताकि तुम सब बातों में खरे* और बेदाग पाए जाओ और तुममें कोई कमी न हो।+
5 इसलिए अगर तुममें से किसी को बुद्धि की कमी हो तो वह परमेश्वर से माँगता रहे+ और वह उसे दी जाएगी,+ क्योंकि परमेश्वर सबको उदारता से और बिना डाँटे-फटकारे* देता है।+
6 लेकिन वह विश्वास के साथ माँगता रहे+ और ज़रा भी शक न करे,+ क्योंकि जो शक करता है वह समुंदर की लहरों जैसा होता है जो हवा से यहाँ-वहाँ उछलती रहती हैं।
7 दरअसल ऐसा इंसान यह उम्मीद न करे कि वह यहोवा* से कुछ पाएगा।
8 ऐसा इंसान उलझन में रहता है*+ और सारी बातों में डाँवाँडोल होता है।
9 जो भाई गरीब है वह इसलिए खुशी मनाए* कि उसे ऊँचा किया गया है+
10 और जो अमीर है वह इसलिए खुशी मनाए कि उसे दीन किया गया है,+ क्योंकि वह ऐसे मिट जाएगा जैसे मैदान में उगनेवाला फूल।
11 जैसे सूरज के चढ़ने पर उसकी तपती धूप से पौधा मुरझा जाता है और उसका फूल सूखकर गिर जाता है और उसकी खूबसूरती मिट जाती है, ठीक वैसे ही अमीर आदमी भी ज़िंदगी की भाग-दौड़ में मिट जाएगा।+
12 सुखी है वह इंसान जो परीक्षा में धीरज धरे रहता है+ क्योंकि परीक्षा में खरा उतरने पर* वह जीवन का ताज पाएगा,+ जिसका वादा यहोवा* ने उनसे किया है जो हमेशा उससे प्यार करते हैं।+
13 जब किसी की परीक्षा हो रही हो तो वह यह न कहे, “परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है।” क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा ली जा सकती है, न ही वह खुद बुरी बातों से किसी की परीक्षा लेता है।
14 लेकिन हर किसी की इच्छा उसे खींचती और लुभाती है,* जिससे वह परीक्षा में पड़ता है।+
15 फिर इच्छा गर्भवती होती है और पाप को जन्म देती है और जब पाप कर लिया जाता है तो यह मौत लाता है।+
16 मेरे प्यारे भाइयो, धोखा न खाओ।
17 हर अच्छा तोहफा और हर उत्तम देन ऊपर से मिलती है+ यानी आकाश की ज्योतियों के पिता की तरफ से,+ जो उस छाया की तरह नहीं बदलता जो घटती-बढ़ती रहती है।+
18 उसकी यही मरज़ी थी कि हमें सच्चाई के वचन से पैदा करे+ ताकि हम उसके बनाए इंसानों में पहले फल जैसे हों।+
19 मेरे प्यारे भाइयो, यह बात जान लो: हर कोई सुनने में फुर्ती करे, बोलने में उतावली न करे+ और गुस्सा करने में जल्दबाज़ी न करे।+
20 क्योंकि इंसान के क्रोध का नतीजा परमेश्वर की नेकी नहीं होता।+
21 इसलिए हर तरह की गंदगी और बुराई का हर दाग* दूर करो+ और जब तुम्हारे अंदर वचन बोया जाता है, तो उसे कोमलता से स्वीकार करो क्योंकि यह तुम्हारी जान बचा सकता है।
22 लेकिन वचन पर चलनेवाले बनो,+ न कि सिर्फ सुननेवाले जो झूठी दलीलों से खुद को धोखा देते हैं।
23 क्योंकि जो कोई वचन को सुनता है मगर उस पर चलता नहीं,+ वह उस इंसान के जैसा है जो आईने में अपना* चेहरा देखता है।
24 वह अपनी सूरत देखता है और चला जाता है और फौरन भूल जाता है कि वह किस तरह का इंसान है।
25 मगर जो इंसान आज़ादी दिलानेवाले खरे कानून को करीब से जाँचता* है+ और उसमें लगा रहता है, ऐसा इंसान सुनकर भूलता नहीं मगर उस पर चलता है और इससे वह खुशी पाता है।+
26 अगर कोई आदमी खुद को परमेश्वर की उपासना करनेवाला* समझता है मगर अपनी ज़बान पर कसकर लगाम नहीं लगाता,+ तो वह अपने दिल को धोखा देता है और उसका उपासना करना बेकार है।
27 हमारे परमेश्वर और पिता की नज़र में शुद्ध और निष्कलंक उपासना* यह है: अनाथों और विधवाओं की मुसीबतों में देखभाल की जाए+ और खुद को दुनिया से बेदाग रखा जाए।+
कई फुटनोट
^ या “पूरे; परिपूर्ण।”
^ या “बिना गलतियाँ ढूँढ़े।”
^ या “दुचित्ता है।”
^ या “गर्व करे।”
^ या “परमेश्वर की मंज़ूरी पाने पर।”
^ या “मानो चारे से फँसाती है।”
^ या शायद, “ढेरों बुराइयों को।”
^ या “अपना असली।”
^ या “झाँकता।”
^ या “धार्मिक।”
^ या “धर्म।”