सभोपदेशक 6:1-12
6 दुनिया में* एक और बात है जो दुख पहुँचाती है और जो इंसानों में अकसर देखी जाती है:
2 इंसान जितनी धन-दौलत और मान-मर्यादा चाहता है, सच्चा परमेश्वर उसे वह सब देता है। फिर भी सच्चा परमेश्वर उन चीज़ों का मज़ा उसे नहीं, किसी पराए को लेने देता है। यह व्यर्थ है और बड़े दुख की बात है।
3 अगर एक आदमी के 100 बच्चे हों और वह बुढ़ापे तक एक लंबी उम्र जीए, फिर भी कब्र में जाने से पहले अपनी अच्छी चीज़ों का मज़ा न ले, तो मेरा मानना है कि उससे अच्छा वह बच्चा है जो मरा हुआ पैदा होता है।+
4 वह बच्चा बेकार ही दुनिया में आया और चला गया और बेनाम ही अँधेरे में खो गया।
5 भले ही उसने सूरज की रौशनी नहीं देखी, न ही वह कुछ जान पाया, फिर भी वह उस आदमी से कहीं अच्छा है।*+
6 अगर एक इंसान 2,000 साल जीकर भी ज़िंदगी का मज़ा न ले सके, तो क्या फायदा? क्या सब-के-सब एक ही जगह नहीं जाते?+
7 इंसान जो मेहनत करता है उससे उसका सिर्फ पेट भरता है,+ जी नहीं भरता।
8 अगर ऐसा है तो बुद्धिमान किस मायने में मूर्ख से बढ़कर हुआ?+ या अगर गरीब को थोड़े में गुज़ारा करना* आता है, तो उसे भी क्या फायदा हुआ?
9 इसलिए जो आँखों के सामने है उसका मज़ा ले, न कि अपनी इच्छाओं के पीछे भाग। क्योंकि यह भी व्यर्थ है और हवा को पकड़ने जैसा है।
10 जो कुछ वजूद में है उसका नाम पहले ही रखा जा चुका है। और यह भी पता चल गया है कि इंसान क्या है। वह उससे नहीं लड़ सकता* जो उससे ज़्यादा शक्तिशाली है।
11 जितनी ज़्यादा बातें* होती हैं, वे उतनी ही व्यर्थ होती हैं और इससे इंसान को कोई फायदा नहीं होता।
12 कौन जानता है कि इंसान के लिए ज़िंदगी में क्या करना सबसे अच्छा है? क्योंकि उसकी छोटी-सी ज़िंदगी व्यर्थ है और छाया के समान गुज़र जाती है।+ कौन उसे बता सकता है कि उसके जाने के बाद दुनिया में* क्या होगा?
कई फुटनोट
^ शा., “सूरज के नीचे।”
^ शा., “उसे उस आदमी से ज़्यादा चैन है।”
^ शा., “ज़िंदा लोगों के सामने चलना।”
^ या “अपनी पैरवी नहीं कर सकता।”
^ या शायद, “चीज़ें।”
^ शा., “सूरज के नीचे।”