दूसरा इतिहास 7:1-22
7 जैसे ही सुलैमान ने प्रार्थना खत्म की,+ आकाश से आग बरसी+ और होम-बलि और दूसरे बलिदान भस्म हो गए और भवन यहोवा की महिमा से भर गया।+
2 याजक यहोवा के भवन में नहीं जा सके क्योंकि यहोवा का भवन यहोवा की महिमा से भर गया।+
3 जब आग ऊपर से बरसी और यहोवा की महिमा भवन पर छा गयी, तो सब इसराएली देख रहे थे। उन्होंने झुककर और फर्श पर मुँह के बल गिरकर दंडवत किया और यह कहकर यहोवा का शुक्रिया अदा किया, “क्योंकि वह भला है, उसका अटल प्यार सदा बना रहता है।”
4 फिर राजा और सब लोगों ने यहोवा के सामने बलिदान चढ़ाए।+
5 राजा सुलैमान ने 22,000 बैलों और 1,20,000 भेड़ों की बलि चढ़ायी। इस तरह राजा और सब लोगों ने सच्चे परमेश्वर के भवन का उद्घाटन किया।+
6 याजक सेवा के लिए अपनी-अपनी ठहरायी जगह खड़े थे और वे लेवी भी खड़े थे जिनके पास यहोवा के लिए गीत गाते समय बजानेवाले साज़ होते थे।+ (राजा दाविद ने ये साज़ इसलिए बनाए थे ताकि ये उस वक्त बजाए जाएँ जब वह उनके* साथ परमेश्वर की तारीफ करे और यह कहकर यहोवा का शुक्रिया अदा करे, “क्योंकि उसका अटल प्यार सदा बना रहता है।”) और उनके सामने याजक ज़ोर-ज़ोर से तुरहियाँ फूँक रहे थे+ और सारे इसराएली वहाँ खड़े थे।
7 फिर सुलैमान ने यहोवा के भवन के सामनेवाले आँगन के बीच का हिस्सा पवित्र ठहराया क्योंकि वहाँ पर उसे होम-बलियाँ और शांति-बलियों की चरबी चढ़ानी थी।+ उसने ये सारे बलिदान वहाँ इसलिए चढ़ाए क्योंकि उसकी बनायी ताँबे की वेदी+ पर इतनी तादाद में होम-बलियाँ, अनाज के चढ़ावे+ और चरबी नहीं चढ़ायी जा सकी।+
8 इस मौके पर सुलैमान ने सात दिन तक इसराएलियों की एक बड़ी भीड़ के साथ मिलकर त्योहार मनाया।+ इस भीड़ में लेबो-हमात* से लेकर मिस्र घाटी* तक के सारे लोग शामिल थे।+
9 मगर आठवें दिन* उन्होंने एक पवित्र सभा रखी+ क्योंकि उन्होंने सात दिन तक वेदी का उद्घाटन किया था और सात दिन त्योहार मनाया था।
10 फिर सातवें महीने के 23वें दिन सुलैमान ने लोगों को अपने-अपने घर भेज दिया। यहोवा ने दाविद और सुलैमान और अपनी प्रजा इसराएल की खातिर जो भलाई की थी, उससे उनका दिल खुशी से उमड़ रहा था+ और वे सब आनंद मनाते हुए अपने-अपने घर लौटे।+
11 इस तरह सुलैमान ने यहोवा का भवन और राजमहल बनाने का काम पूरा किया।+ उसने यहोवा के भवन और अपने महल में जो भी बनाना चाहा, वह सब बनाने में कामयाब रहा।+
12 फिर यहोवा रात के वक्त सुलैमान के सामने प्रकट हुआ+ और उससे कहा, “मैंने तेरी प्रार्थना सुनी है और मैंने यह जगह अपने लिए बलिदान की जगह ठहरायी है।+
13 जब मैं आकाश के झरोखे बंद कर दूँ और बारिश न हो और मैं टिड्डियों को आदेश दूँ कि वे इस ज़मीन को चट कर जाएँ और अपने लोगों में महामारी भेजूँ,
14 तब अगर मेरे लोग जो मेरे नाम से जाने जाते हैं,+ खुद को नम्र करें+ और प्रार्थना करके मेरी मंज़ूरी पाने की कोशिश करें और अपनी बुरी राहों से फिर जाएँ,+ तो मैं स्वर्ग से उनकी प्रार्थना सुनूँगा और उनके पाप माफ करूँगा और उनके देश को चंगा करूँगा।+
15 इस जगह पर जो लोग प्रार्थना करेंगे, मैं उनकी सुनूँगा और मेरी नज़र उन पर बनी रहेगी।+
16 मैंने यह भवन चुना है और इसे पवित्र किया है ताकि सदा तक मेरा नाम इससे जुड़ा रहे+ और मैं इसकी देखभाल के लिए हमेशा अपनी आँखें इस पर लगाए रखूँगा और यह भवन सदा मेरे दिल के करीब रहेगा।+
17 और अगर तू वह सब करेगा जिसकी मैंने तुझे आज्ञा दी है और मेरे नियम और न्याय-सिद्धांत मानेगा और इस तरह अपने पिता दाविद की तरह मेरे सामने सही राह पर चलेगा,+
18 तो मैं तेरी राजगद्दी हमेशा के लिए कायम रखूँगा,+ ठीक जैसे मैंने तेरे पिता दाविद से यह करार किया था,+ ‘ऐसा कभी नहीं होगा कि इसराएल की राजगद्दी पर बैठने के लिए तेरे वंश का कोई आदमी न हो।’+
19 लेकिन अगर तू मुझसे मुँह फेर लेगा और मेरी आज्ञाओं और विधियों को मानना छोड़ देगा जो मैंने तुझे दी हैं और जाकर पराए देवताओं की पूजा करेगा और उन्हें दंडवत करेगा,+
20 तो मैं इसराएल को अपने देश से उखाड़ फेंकूँगा जो मैंने उसे दिया है+ और इस भवन को, जिसे मैंने अपने नाम की महिमा के लिए पवित्र ठहराया है, अपनी नज़रों से दूर कर दूँगा। यह भवन सब देशों में मज़ाक* बनकर रह जाएगा, इसकी बरबादी देखकर सब हँसेंगे।+
21 और यह भवन मलबे का ढेर हो जाएगा। इसके पास से गुज़रनेवाला हर कोई इसे फटी आँखों से देखता रह जाएगा+ और कहेगा, ‘यहोवा ने इस देश की और इस भवन की ऐसी हालत क्यों कर दी?’+
22 फिर वे कहेंगे, ‘वह इसलिए कि उन्होंने अपने पुरखों के परमेश्वर यहोवा को छोड़ दिया+ जो उन्हें मिस्र से निकाल लाया था+ और उन्होंने दूसरे देवताओं को अपना लिया और वे उन्हें दंडवत करके उनकी सेवा करने लगे।+ इसीलिए वह उन पर यह संकट ले आया।’”+
कई फुटनोट
^ शायद यहाँ लेवियों की बात की गयी है।
^ या “हमात के प्रवेश।”
^ त्योहार के बादवाला दिन या 15वाँ दिन।
^ शा., “कहावत।”