अय्यूब 10:1-22

  • अय्यूब की बात जारी (1-22)

    • ‘परमेश्‍वर क्यों मुझसे लड़ रहा है?’ (2)

    • परमेश्‍वर और अय्यूब में फर्क (4-12)

    • ‘काश! मुझे थोड़ी राहत मिले’ (20)

10  नफरत है मुझे अपनी ज़िंदगी से!+ अब मैं चुप नहीं रहूँगा, मन का गुबार निकाल दूँगा,अपनी सारी कड़वाहट उगल दूँगा।   परमेश्‍वर से कहूँगा, ‘मुझे दोषी मत ठहरा। बता, क्यों मुझसे लड़ रहा है?   मुझे सताकर, अपने हाथ की रचना को दुतकारकर तुझे क्या मिलेगा?+दुष्ट की चालों से खुश होकर तुझे क्या मिलेगा?   क्या तेरी आँखें इंसानों जैसी हैं?क्या तू हम नश्‍वर इंसानों की तरह देखता है?   क्या तेरी ज़िंदगी नश्‍वर इंसानों जितनी है,जिसे दिनों और सालों में गिना जा सके?+   तू क्यों मेरे अंदर गलतियाँ ढूँढ़ रहा है?क्यों मुझमें पाप खोज रहा है?+   तू जानता है मैं दोषी नहीं+और कोई मुझे तेरे हाथ से नहीं बचा सकता।+   तूने अपने हाथों से मुझे ढाला और बनाया है,+अब तू ही मुझे खत्म कर देना चाहता है?   हे परमेश्‍वर याद कर, तूने मुझे मिट्टी से रचा है,+अब तू ही मुझे मिट्टी में मिला देना चाहता है?+ 10  क्या तूने मुझे मेरी माँ के गर्भ में नहीं डालाऔर मुझे आकार नहीं दिया?* 11  तूने मुझे माँस और खाल का ओढ़ना पहनायाऔर हड्डियों और नसों से मुझे जोड़ा।+ 12  यह जीवन तेरी ही देन है! तेरा प्यार मेरे लिए अटल रहा,तूने मेरा ध्यान रखा,+ मेरी जान* सलामत रखी। 13  लेकिन मन-ही-मन तूने मुझ पर मुसीबतें लाने की सोची,* मैं जानता हूँ यह सब तूने किया है। 14  जब मैं पाप करता हूँ, तो तू सब देखता है+और मेरे गुनाह माफ नहीं करता। 15  अगर मैं दोषी हूँ, तो धिक्कार है मुझ पर! लेकिन अगर मैं निर्दोष हूँ, तो भी सिर उठाकर नहीं चल पाऊँगा,+इतना अपमान और तकलीफें जो सही हैं मैंने!+ 16  अगर मैं घमंड करूँ, तो तू शेर की तरह मुझ पर टूट पड़ेगा,+एक बार फिर दिखा देगा कि तू कितना ताकतवर है। 17  तू मेरे खिलाफ नए-नए गवाह खड़े करता है,तेरा क्रोध मुझ पर बढ़ता जा रहा है,तू मुझे दुख-पर-दुख दे रहा है। 18  क्यों तूने मुझे माँ की कोख से पैदा होने दिया?+ अच्छा होता मैं वहीं मर जाता और मुझे कोई न देख पाता। 19  तब मेरा होना, न होने के समान होता!माँ के गर्भ से मैं सीधे कब्र में जाता।’ 20  क्या मेरे दिन गिनती के नहीं रह गए?+काश! परमेश्‍वर मुझे अकेला छोड़ दे,अपनी नज़रें मुझसे फेर ले कि मुझे थोड़ी राहत* मिले।+ 21  क्योंकि बहुत जल्द मैं जानेवाला हूँ,घोर अंधकार* के उस देश में,+ जहाँ से मैं वापस नहीं आऊँगा,+ 22  सूनी काली रातों का वह देशजहाँ हाथ-को-हाथ नहीं सूझता, जहाँ कोई व्यवस्था नहीं,जहाँ दिन का उजाला भी घने अँधेरे जैसा है।”

कई फुटनोट

शा., “क्या तूने मुझे दूध की तरह नहीं उँडेला? और पनीर की तरह नहीं बनाया?”
या “साँसें।”
शा., “और तूने ऐसी बातों को अपने मन में छिपा रखा।”
या “खुशी।”
या “अंधकार और मौत के साए।”