अय्यूब 29:1-25

  • अय्यूब अच्छे दिनों को याद करता है (1-25)

    • शहर के फाटक पर इज़्ज़त थी (7-10)

    • न्याय के हक में काम किया (11-17)

    • सब उसकी सलाह मानते (21-23)

29  अय्यूब ने अपनी बात जारी रखी,   “काश! वह गुज़रा हुआ वक्‍त वापस आ जाए,वे दिन लौट आएँ जब परमेश्‍वर मेरा ध्यान रखता था,   जब उसका दीपक मेरे ऊपर चमकता था,मेरी अँधेरी राहों को रौशन करता था।+   जवानी के वे दिन भी क्या दिन थे!मुझे अपने डेरे में परमेश्‍वर की दोस्ती का सुख-भरा एहसास था,+   सर्वशक्‍तिमान मेरे साथ था,मेरे बाल-बच्चे* मुझे घेरे रहते थे।   मेरे पैर मक्खन में डूबे रहते थे,चट्टानें मेरे लिए तेल की धाराएँ बहाती थीं।+   वे भी क्या दिन थे, जब मैं शहर के फाटक+ पर जाता था,चौक में आकर अपनी जगह लेता था।+   मुझे देखते ही जवान लड़के मेरे लिए रास्ता छोड़ देते थे,*बड़े-बुज़ुर्ग भी अपनी जगह से उठ जाते और खड़े रहते थे।+   हाकिम बोलने से खुद को रोक लेते थे,मुँह पर अपना हाथ रख लेते थे। 10  बड़े-बड़े आदमी चुप हो जाते थे,उनकी जीभ तालू से चिपक जाती थी। 11  जो मेरी बातें सुनता, मेरी तारीफ करते नहीं थकता था,जो मुझे देखता, मेरी नेकनामी की गवाही देता था। 12  क्योंकि गरीबों की फरियाद सुन मैं उनकी मदद करता था,+अनाथों और बेसहारों को मुसीबत से छुड़ाता था।+ 13  वे मुझे दुआएँ देते थे कि मैंने उन्हें मिटने से बचाया,+मेरी मदद पाकर विधवाओं का दिल खुश हो जाता था।+ 14  मैंने नेकी को अपना पहनावा बनाया,न्याय को अपना चोगा और अपनी पगड़ी समझा। 15  मैं अंधों के लिए आँखें बनाऔर लँगड़ों के लिए पैर। 16  गरीबों के लिए मैं पिता समान था,+अनजान लोगों के मुकदमे जाँचता था।+ 17  मैं बुरा करनेवालों का जबड़ा तोड़ देता था,+उनके मुँह से शिकार को बचा लेता था। 18  मैं कहता था, ‘मेरे दिन बालू के किनकों जैसे अनगिनत होंगेऔर मैं अपने ही बसेरे में दम तोड़ूँगा।+ 19  मेरी जड़ें पानी के सोते तक फैलेंगी,मेरी डालियाँ रात-भर ओस से भीगी रहेंगी। 20  मेरी मान-मर्यादा सदा बनी रहेगी,तीर चलाने के लिए मेरे बाज़ुओं में हमेशा दम रहेगा।’ 21  लोग बड़े चाव से मेरी बातें सुनते,खामोश रहकर मेरी सलाह का इंतज़ार करते।+ 22  मेरे कहने के बाद उनके पास कहने को कुछ नहीं होता था,मेरे एक-एक शब्द को वे रस लेकर सुनते थे।* 23  जैसे कोई बरखा का इंतज़ार करता है, वे मेरे बोलने का इंतज़ार करते थे।मेरे शब्दों को ऐसे पीते थे, जैसे मुँह खोलकर वसंत की बौछार पी रहे हों।+ 24  जब मैं उन्हें देखकर मुस्कुराता तो उन्हें यकीन नहीं होता था,मेरे चेहरे की रौनक से उनका हौसला बढ़ता था।* 25  उनका मुखिया होने के नाते मैं उन्हें राह दिखाता,उनके बीच ऐसे रहता था जैसे कोई राजा अपनी फौज के बीच रहता है+और जैसे कोई मातम करनेवालों के बीच रहकर दिलासा देता है।+

कई फुटनोट

या “सेवक।”
शा., “छिप जाते थे।”
शा., “मेरे शब्द बारिश की बूँदों की तरह उनके कानों में पड़ते।”
या शायद, “उन्होंने मेरे चेहरे की रौनक नहीं छीनी।”