नीतिवचन 8:1-36

  • बुद्धि कहती है (1-36)

    • ‘मैं परमेश्‍वर की पहली कारीगरी हूँ’ (22)

    • “कुशल कारीगर की तरह उसके साथ थी” (30)

    • ‘इंसानों से मुझे लगाव था’ (31)

8  देख, बुद्धि आवाज़ लगा रही है, पैनी समझ ज़ोर-ज़ोर से पुकार रही है।+   वह सड़क किनारे ऊँची जगहों पर+और चौराहों पर खड़ी होकर,   शहर के फाटकों के पास,द्वार पर खड़ी होकर ऊँची आवाज़ में कहती है,+   “हे लोगो, मेरी सुनो,मैं तुम सबसे* कह रही हूँ।   हे नादानो, होशियारी से काम लेना सीखो,+हे मूर्खो, समझ रखनेवाला मन हासिल करो।   मेरी सुनो क्योंकि मैं ज़रूरी बातें बता रही हूँ,मैं जो कहूँगी सही कहूँगी।   मैं सच्चाई की बातें धीमे-धीमे बोलती हूँ,मेरे होंठ दुष्ट बातों से घिन करते हैं।   मेरी कही सारी बातें नेकी की हैं, उनमें कोई छल-कपट या उलट-फेर नहीं।   समझ रखनेवाले ये बातें साफ-साफ समझ जाते हैं,ज्ञान पानेवालों को ये सीधी और सच्ची लगती हैं। 10  चाँदी को नहीं, मेरी शिक्षा को चुन लो,बढ़िया सोने को नहीं, मेरे ज्ञान को ले लो,+ 11  क्योंकि बुद्धि का मोल मूंगों* से बढ़कर है,सारी कीमती चीज़ें भी इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं। 12  मैं बुद्धि, होशियारी के संग बसेरा करती हूँ,मैंने ज्ञान और सोचने-परखने की शक्‍ति पायी है।+ 13  यहोवा का डर मानना, बुराई से नफरत करना है।+ गुरूर, घमंड,+ बुरी राह और झूठी ज़बान से मुझे नफरत है।+ 14  मेरे पास बढ़िया सलाह हैऔर ऐसी बुद्धि है जो फायदा पहुँचाती है,+मेरे पास समझ+ और ताकत भी है।+ 15  मेरी मदद से राजा हुकूमत करते हैं,शासक नेकी के कानून ठहराते हैं।+ 16  मेरी मदद से हाकिम राज करते हैं,ऊँचे अधिकारी सच्चाई से न्याय करते हैं। 17  जो मुझसे प्यार करते हैं, उनसे मैं प्यार करती हूँ,जो मुझे ढूँढ़ते हैं, वे मुझे पा लेते हैं।+ 18  मेरे पास धन और आदर है,कभी न मिटनेवाली दौलत और नेकी है। 19  मेरे दिए तोहफे सोने से, हाँ, शुद्ध सोने से बढ़कर हैं,मैं जो देती हूँ वह बढ़िया चाँदी से अच्छा है।+ 20  मैं नेकी की राह पर चलती हूँ,इंसाफ की डगर के बीचों-बीच जाती हूँ। 21  जो मुझसे प्यार करते हैं,उन्हें सच्ची दौलत से मालामाल करती हूँ,उनके भंडारों को भर देती हूँ। 22  यहोवा ने मुझे बहुत पहले रचा,उसने सृष्टि की शुरूआत मुझसे की,+मैं उसकी सबसे पहली कारीगरी थी।+ 23  बहुत समय पहले, पृथ्वी की रचना से भी पहले,शुरू में मुझे अपनी जगह दी गयी।+ 24  जब मैं पैदा हुई* तब न तो गहरा सागर था,+न उमड़ते पानी के सोते। 25  पहाड़ों को अपनी जगह स्थिर करने से पहले,पहाड़ियों से भी पहले, मुझे रचा गया। 26  उस वक्‍त उसने न तो धरती न इसके मैदान,न ही मिट्टी का पहला ढेला बनाया था। 27  जब उसने आसमान को ताना,+पानी पर सीमा-रेखा* खींची+ तब मैं वहीं थी। 28  जब उसने ऊपर बादल ठहराए,*गहरे सागर में सोते बनाए, 29  जब उसने समुंदर की हद ठहरायीकि वह उसका हुक्म न तोड़े,+जब उसने धरती की नींव रखी, 30  तब मैं एक कुशल कारीगर की तरह उसके साथ थी।+ उसे हर दिन मुझसे बहुत खुशी मिलती थी+और मैं हर वक्‍त उसके सामने मगन रहती थी।+ 31  जब मैंने इंसानों के रहने के लिए धरती देखी,तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। इंसानों से मुझे गहरा लगाव था। 32  अब हे मेरे बेटो, मेरी सुनो!क्योंकि जो मेरी सुनता है और मेरी राह पर चलता है,वह खुश रहता है। 33  शिक्षा को कबूल करो+ और बुद्धिमान बनो,उसे लेने से इनकार मत करो। 34  सुखी है वह इंसान जो मेरी सुनता है,जो हर दिन मेरे दरवाज़े पर सुबह-सुबह आता है,चौखट के पास खड़ा मेरा इंतज़ार करता है। 35  क्योंकि जो मुझे ढूँढ़ लेता है, वह जीवन पाता है+और उसे यहोवा की मंज़ूरी मिलती है। 36  मगर जो मुझे अनदेखा करता है, वह खुद को चोट पहुँचाता है,जो मुझसे नफरत करता है उसे मौत ज़्यादा प्यारी है।”+

कई फुटनोट

शा., “तुम आदमियों से।”
शब्दावली देखें।
या “जब प्रसव-पीड़ा के साथ मुझे पैदा किया गया।”
या “क्षितिज।”
शा., “स्थिर किए।”