सभोपदेशक 2:1-26

  • सुलैमान के कामों पर एक नज़र (1-11)

  • इंसान की बुद्धि की एक सीमा है (12-16)

  • कड़ी मेहनत व्यर्थ होती है (17-23)

  • खाओ-पीओ और मेहनत करो (24-26)

2  मैंने मन-ही-मन कहा, “चल मौज-मस्ती करें,* देखें तो सही इससे कुछ फायदा होता है या नहीं।” मगर मैंने पाया कि यह भी व्यर्थ है।   मैंने कहा, “हँसी-ठहाके लगाना तो पागलपन है।” मैंने खुद से पूछा, “मौज-मस्ती करने* का क्या फायदा?”  मैंने सोचा, दाख-मदिरा का भी मज़ा लेकर देख लूँ।+ मगर मैंने अपना होश-हवास नहीं खोया। मैंने मूर्खता को भी गले लगाया। मैं जानना चाहता था कि आसमान के नीचे चंद दिनों की ज़िंदगी जीनेवाले इंसान के लिए क्या करना सबसे अच्छा होगा।  मैंने बड़े-बड़े काम किए:+ अपने लिए घर बनाए,+ अंगूरों के बाग लगाए,+  बड़े-बड़े बाग-बगीचे लगाए और वहाँ हर किस्म के फलदार पेड़ उगाए।  मैंने पानी के कुंड बनवाए कि मेरे बाग* के नए-नए पेड़ सींचे जाएँ।  मैंने दास-दासियाँ रखे,+ मेरे यहाँ ऐसे दास भी थे जो मेरे घर में पैदा हुए थे। मेरे पास गाय-बैल, भेड़-बकरियाँ, इतने सारे मवेशी हो गए+ जितने यरूशलेम में मुझसे पहले किसी राजा के पास नहीं थे।  मैंने अपने लिए इतना सोना-चाँदी इकट्ठा किया,+ जितना राजाओं के खज़ाने और ज़िले के खज़ाने में होता है।+ मैंने अपने लिए गायक-गायिकाएँ रखे। इसके अलावा, मैंने औरत हाँ, कई औरतों का साथ भी पाया जिनसे आदमियों का दिल खुश होता है।  इस तरह मैं महान बन गया। मेरे पास वह सबकुछ था जो मुझसे पहले यरूशलेम में किसी के पास नहीं हुआ।+ तब भी मेरी बुद्धि भ्रष्ट नहीं हुई। 10  मेरी आँखों ने जो देखा और चाहा उसे मैंने पा लिया।+ किसी भी तरह का सुख लेने* से मैंने अपने मन को नहीं रोका और मैं अपनी मेहनत के सारे कामों से भी खुश था। यह सब मेरी मेहनत का इनाम था।+ 11  लेकिन जब मैंने अपने सब कामों और उसके पीछे लगी मेहनत+ के बारे में सोचा, तो यही पाया कि सब व्यर्थ है और हवा को पकड़ने जैसा है।+ दुनिया में* कुछ भी करने का फायदा नहीं।+ 12  फिर मैंने बुद्धि, पागलपन और मूर्खता आज़माकर देखी।+ (जब राजा ने सब आज़मा लिया है, तो उसके बाद आनेवाला आदमी क्या कर सकता है? वही जो पहले किया जा चुका है।) 13  और मैंने क्या देखा कि जैसे अँधेरे से ज़्यादा रौशनी अच्छी है, वैसे ही मूर्खता से ज़्यादा बुद्धि अच्छी है।+ 14  बुद्धिमान साफ देख सकता है कि वह किस राह जा रहा है,*+ लेकिन मूर्ख अंधकार में भटकता है।+ मैं यह भी समझ गया कि उन दोनों का एक ही अंजाम होता है।+ 15  मैंने मन-ही-मन कहा, “मूर्ख के साथ जो होता है वह मेरे साथ भी होगा।”+ तो फिर मैंने इतनी बुद्धि हासिल क्यों की? मैंने मन में कहा, “यह भी व्यर्थ है।” 16  क्योंकि न तो बुद्धिमान को याद रखा जाता है, न ही मूर्ख को।+ आखिर में सबको भुला दिया जाएगा। और बुद्धिमान का क्या अंजाम होगा? जैसे मूर्ख मरता है, वह भी मर जाएगा।+ 17  मैं जीवन से नफरत करने लगा+ क्योंकि सूरज के नीचे जो कुछ किया जाता है वह देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। सबकुछ व्यर्थ है+ और हवा को पकड़ने जैसा है।+ 18  मुझे उन चीज़ों से नफरत होने लगी जिनके लिए मैंने दुनिया में* खूब मेहनत की।+ क्योंकि मेरा सबकुछ उस आदमी का हो जाएगा जो मेरे बाद आएगा।+ 19  और कौन जाने वह बुद्धिमान होगा या मूर्ख?+ फिर भी वह उन चीज़ों का मालिक बन जाएगा, जो मैंने दुनिया में* बड़े जतन से और बुद्धि से हासिल की हैं। यह भी व्यर्थ है। 20  मैं मन-ही-मन निराश हो गया कि क्यों मैंने दुनिया में* इन चीज़ों के लिए इतनी मेहनत की। 21  एक आदमी अपनी बुद्धि, ज्ञान और हुनर के दम पर कड़ी मेहनत तो करता है, मगर उसे अपना सबकुछ ऐसे आदमी को देना पड़ता है जिसने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की।+ यह भी व्यर्थ है और बड़े दुख की बात है। 22  उस इंसान को क्या मिलता है जिस पर दुनिया में* कुछ हासिल करने का जुनून सवार हो और जिसके लिए वह जी-जान लगा दे?+ 23  दुख और दर्द के सिवा उसे कुछ नहीं मिलता।+ रात को भी उसके मन को चैन नहीं पड़ता।+ यह भी व्यर्थ है। 24  इंसान के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि वह खाए-पीए और अपनी मेहनत से खुशी पाए!+ मैं जान गया कि यह भी सच्चे परमेश्‍वर की देन है।+ 25  मुझे देखो, भला मुझसे अच्छा कौन खाता-पीता है?+ 26  जो इंसान परमेश्‍वर को खुश करता है उसे वह बुद्धि, ज्ञान और खुशी देता है।+ लेकिन पापी को वह बटोरने का काम देता है ताकि उसकी बटोरी हुई चीज़ें उस इंसान को मिलें, जो सच्चे परमेश्‍वर को खुश करता है।+ यह भी व्यर्थ है और हवा को पकड़ने जैसा है।

कई फुटनोट

या “खुशियाँ मनाएँ।”
या “खुशी मनाने।”
या “जंगल।”
या “की खुशी मनाने।”
शा., “सूरज के नीचे।”
शा., “बुद्धिमान के सिर में आँखें रहती हैं।”
शा., “सूरज के नीचे।”
शा., “सूरज के नीचे।”
शा., “सूरज के नीचे।”
शा., “सूरज के नीचे।”