दूसरा इतिहास 6:1-42

  • सुलैमान का भाषण (1-11)

  • उद्‌घाटन पर सुलैमान की प्रार्थना (12-42)

6  उस वक्‍त सुलैमान ने कहा, “हे यहोवा, तूने कहा था कि तू घने बादलों में निवास करेगा।+  मैंने तेरे लिए एक शानदार भवन बनाया है ताकि तू सदा तक इसमें निवास करे।”+  फिर राजा इसराएल की पूरी मंडली की तरफ मुड़ा जो वहाँ खड़ी थी और लोगों को आशीर्वाद देने लगा।+  उसने कहा, “इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा की तारीफ हो। उसने अपने मुँह से जो वादा किया था उसे आज अपने हाथों से पूरा किया है। उसने मेरे पिता दाविद से कहा था,  ‘जिस दिन मैं अपनी प्रजा इसराएल को मिस्र से निकाल लाया था, उस दिन से लेकर अब तक मैंने इसराएल के किसी भी गोत्र के इलाके में कोई शहर नहीं चुना कि वहाँ मेरे नाम की महिमा के लिए कोई भवन बनाया जाए।+ और मैंने अपनी प्रजा इसराएल का अगुवा होने के लिए किसी इंसान को नहीं चुना था।  मगर मैंने यरूशलेम को चुना+ कि उससे मेरा नाम जुड़ा रहे और मैंने दाविद को अपनी प्रजा इसराएल पर राज करने के लिए चुना है।’+  मेरे पिता दाविद की दिली तमन्‍ना थी कि वह इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा के नाम की महिमा के लिए एक भवन बनाए।+  मगर यहोवा ने मेरे पिता दाविद से कहा, ‘यह अच्छी बात है कि तू मेरे नाम की महिमा के लिए एक भवन बनाने की दिली तमन्‍ना रखता है।  पर तू मेरे लिए भवन नहीं बनाएगा बल्कि तेरा अपना बेटा, जो तुझसे पैदा होगा, वह मेरे नाम की महिमा के लिए एक भवन बनाएगा।’+ 10  यहोवा ने अपना यह वादा पूरा किया है क्योंकि मैं अपने पिता दाविद के बाद राजा बना हूँ और इसराएल की राजगद्दी पर बैठा हूँ,+ ठीक जैसे यहोवा ने वादा किया था।+ और मैंने इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा के नाम की महिमा के लिए भवन भी बनाया है। 11  इस भवन में मैंने वह संदूक रखा है जिसमें उस करार की पटियाएँ हैं+ जो यहोवा ने इसराएल के लोगों के साथ किया था।” 12  फिर वह इसराएल की पूरी मंडली के देखते यहोवा की वेदी के सामने खड़ा हुआ और उसने आसमान की तरफ अपने हाथ फैलाए।+ 13  (सुलैमान ने ताँबे का एक चबूतरा बनाया था और उसे आँगन के बीच रखा था।+ यह चबूतरा पाँच हाथ* लंबा, पाँच हाथ चौड़ा और तीन हाथ ऊँचा था। सुलैमान उस पर खड़ा था।) उसने इसराएल की पूरी मंडली के सामने घुटने टेककर और आसमान की तरफ अपने हाथ फैलाकर यह प्रार्थना की:+ 14  “हे इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा, तेरे जैसा परमेश्‍वर कोई नहीं, न आसमान में न धरती पर। तू हमेशा अपना करार पूरा करता है और अपने उन सेवकों से प्यार* करता है जो तेरे सामने पूरे दिल से सही राह पर चलते हैं।+ 15  तूने अपना वह वादा पूरा किया है जो तूने अपने सेवक, मेरे पिता दाविद से किया था।+ तूने खुद अपने मुँह से यह वादा किया था और आज उसे अपने हाथों से पूरा भी किया।+ 16  अब हे इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा, तू अपना यह वादा भी पूरा करना जो तूने अपने सेवक, मेरे पिता दाविद से किया था: ‘अगर तेरे बेटे तेरी तरह मेरे सामने सही राह पर चलते रहेंगे और इस तरह अपने चालचलन पर ध्यान देंगे, तो ऐसा कभी नहीं होगा कि मेरे सामने इसराएल की राजगद्दी पर बैठने के लिए तेरे वंश का कोई आदमी न हो।’+ 17  हे इसराएल के परमेश्‍वर यहोवा, तू अपना यह वादा पूरा करना जो तूने अपने सेवक दाविद से किया था। 18  लेकिन क्या परमेश्‍वर वाकई धरती पर इंसानों के साथ निवास करेगा?+ देख, तू तो आकाश में, हाँ, विशाल आकाश में भी नहीं समा सकता।+ फिर यह भवन क्या है जो मैंने बनाया है, कुछ भी नहीं!+ 19  हे मेरे परमेश्‍वर यहोवा, तेरा यह सेवक तेरे सामने जो प्रार्थना कर रहा है उस पर ध्यान दे, उसकी कृपा की बिनती सुन। तू उसकी मदद की पुकार सुन और उसकी प्रार्थना स्वीकार कर। 20  तूने इस भवन के बारे में कहा था कि इससे तेरा नाम जुड़ा रहेगा,+ इसलिए तेरी आँखें दिन-रात इस भवन पर लगी रहें और जब तेरा सेवक इस भवन की तरफ मुँह करके प्रार्थना करे तो तू उस पर ध्यान देना। 21  जब तेरा यह सेवक और तेरी प्रजा इसराएल के लोग इस जगह की तरफ मुँह करके मदद के लिए गिड़गिड़ाकर बिनती करें तो तू उनकी सुनना,+ अपने निवास-स्थान स्वर्ग से उनकी सुनना।+ तू उनकी फरियाद सुनना और उनके पाप माफ करना।+ 22  अगर एक आदमी का संगी-साथी उस पर इलज़ाम लगाए कि तूने मेरे साथ गलत किया है और उसे शपथ धरायी जाती है* और वह आदमी शपथ* की वजह से इस भवन में तेरी वेदी के सामने आए,+ 23  तो तू स्वर्ग से सुनकर कार्रवाई करना। तू अपने सेवकों का न्याय करना, उनमें से जो दुष्ट है उसे उसके किए की सज़ा देना+ और जो नेक है उसे बेकसूर* ठहराना और उसकी नेकी के मुताबिक उसे फल देना।+ 24  अगर तेरी प्रजा इसराएल तेरे खिलाफ पाप करते रहने की वजह से दुश्‍मन से युद्ध हार जाए+ और वह बाद में तेरे पास लौट आए, तेरे नाम की महिमा करे+ और इस भवन में आकर तुझसे प्रार्थना करे+ और रहम की भीख माँगे,+ 25  तो तू स्वर्ग से अपनी प्रजा इसराएल के लोगों की बिनती सुनना+ और उनके पाप माफ करना। तू उन्हें इस देश में लौटा ले आना जो तूने उन्हें और उनके पुरखों को दिया था।+ 26  अगर उनके पाप करते रहने की वजह से+ आकाश के झरोखे बंद हो जाएँ और बारिश न हो+ और तू उन्हें नम्रता का सबक सिखाए* और इस वजह से वे इस जगह की तरफ मुँह करके प्रार्थना करें, तेरे नाम की महिमा करें और पाप की राह से पलटकर लौट आएँ,+ 27  तो तू स्वर्ग से अपनी प्रजा इसराएल की सुनना और अपने सेवकों के पाप माफ करना क्योंकि तू उन्हें सही राह के बारे में सिखाएगा जिस पर उन्हें चलना चाहिए+ और अपने इस देश पर बारिश करेगा+ जिसे तूने अपने लोगों को विरासत में दिया है। 28  अगर देश में अकाल पड़े+ या महामारी फैले+ या फसलों पर झुलसन, बीमारी,+ दलवाली टिड्डियों या भूखी टिड्डियों का कहर टूटे+ या दुश्‍मन आकर देश के किसी शहर* को घेर लें+ या देश में कोई बीमारी फैले या किसी और तरह की मुसीबत आए+ 29  और ऐसे में एक आदमी या तेरी प्रजा इसराएल के सब लोग इस भवन की तरफ हाथ फैलाकर तुझसे कृपा की बिनती करें+ (क्योंकि हर कोई अपनी पीड़ा और अपना दर्द जानता है),+ 30  तो तू अपने निवास-स्थान स्वर्ग से उनकी सुनना+ और उन्हें माफ करना।+ तू उनमें से हरेक को उसके कामों के हिसाब से फल देना क्योंकि तू हरेक का दिल जानता है (सिर्फ तू ही सही मायनों में जानता है कि इंसान का दिल कैसा है)।+ 31  तब वे जब तक इस देश में रहेंगे, जो तूने हमारे पुरखों को दिया था, तेरी राहों पर चलकर तेरा डर मानते रहेंगे। 32  अगर कोई परदेसी, जो तेरी प्रजा इसराएल में से नहीं है, तेरे महान नाम के बारे में सुनकर और यह भी कि तूने कैसे अपना शक्‍तिशाली हाथ बढ़ाकर बड़े-बड़े काम किए थे, दूर देश से आता है+ और इस भवन की तरफ मुँह करके प्रार्थना करता है,+ 33  तो तू अपने निवास-स्थान स्वर्ग से उसकी सुनना और उसके लिए वह सब करना जिसकी वह गुज़ारिश करता है ताकि धरती के सब देशों के लोग तेरा नाम जानें+ और तेरा डर मानें, जैसे तेरी इसराएली प्रजा तेरा डर मानती है और वे जानें कि यह भवन जो मैंने बनाया है, इससे तेरा नाम जुड़ा है। 34  जब तू अपने लोगों को दुश्‍मनों से लड़ने कहीं भेजे+ और वे तेरे चुने हुए शहर की तरफ और इस भवन की तरफ मुँह करके, जो मैंने तेरे नाम की महिमा के लिए बनाया है, तुझसे प्रार्थना करें,+ 35  तो तू स्वर्ग से उनकी प्रार्थना और उनकी कृपा की बिनती सुनना और उन्हें न्याय दिलाना।+ 36  अगर वे तेरे खिलाफ पाप करें (क्योंकि ऐसा कोई भी इंसान नहीं जो पाप न करता हो)+ और तू क्रोध से भरकर उन्हें दुश्‍मनों के हवाले कर दे और दुश्‍मन उन्हें बंदी बनाकर किसी देश में ले जाएँ, फिर चाहे वह पास का देश हो या दूर का+ 37  और वहाँ जाने के बाद जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हो और वे बँधुआई के देश में रहते तेरे पास लौट आएँ और तुझसे रहम की भीख माँगें और कहें, ‘हमने पाप किया है, हमने गुनाह किया है, हमने दुष्टता का काम किया है’+ 38  और वे बँधुआई के देश में रहते+ पूरे दिल और पूरी जान से तेरे पास लौट आएँ+ और अपने इस देश की तरफ मुँह करके तुझसे प्रार्थना करें जो तूने उनके पुरखों को दिया था और तेरे चुने हुए शहर की तरफ और इस भवन की तरफ, जो मैंने तेरे नाम की महिमा के लिए बनाया है, मुँह करके प्रार्थना करें+ 39  तो तू अपने निवास-स्थान स्वर्ग से उनकी प्रार्थना और कृपा की बिनती सुनना और उन्हें न्याय दिलाना।+ तू अपने लोगों के पाप माफ कर देना जो उन्होंने तेरे खिलाफ किए होंगे। 40  हे मेरे परमेश्‍वर, मेहरबानी करके उन लोगों की प्रार्थना सुनना जो इस जगह पर* करेंगे और तेरी नज़र उन पर बनी रहे।+ 41  अब हे यहोवा परमेश्‍वर, उठ, अपने विश्राम की जगह आ।+ तू और तेरा संदूक आए जो तेरी ताकत की निशानी है। हे यहोवा परमेश्‍वर, तेरे याजक उद्धार की पोशाक पहने हुए हों और तेरे वफादार लोग तेरी भलाई के कारण मगन हों।+ 42  हे यहोवा परमेश्‍वर, अपने अभिषिक्‍त जन को न ठुकरा।*+ तूने अपने सेवक दाविद से जो प्यार* किया था, तू उसे याद रखे।”+

कई फुटनोट

एक हाथ 44.5 सें.मी. (17.5 इंच) के बराबर था। अति. ख14 देखें।
या “अटल प्यार।”
शा., “शाप।”
या “संगी-साथी उसे शाप देता है।” यानी ऐसी शपथ जिसमें उस इंसान को शाप मिलता था जो झूठी शपथ खाता है या अपनी शपथ पूरी नहीं करता।
शा., “नेक।”
या “दुख दे।”
शा., “उसके फाटकों के देश।”
या “के बारे में।”
शा., “का मुँह न फेर दे।”
या “अटल प्यार।”