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अपनी मन्‍नतें पूरी कीजिए

अपनी मन्‍नतें पूरी कीजिए

इसराएली अपनी मरज़ी से मन्‍नत मान सकते थे। मन्‍नत मानने पर उसे पूरा करना ज़रूरी था (गि 30:2; इंसाइट-2 पेज 1162)

वे ऐसी चीज़ों से दूर रहने की मन्‍नत मान सकते थे जो अपने आप में गलत नहीं होतीं (गि 30:3, 4; इंसाइट-2 पेज 1162)

आज यहोवा अपने हर सेवक को उसकी मन्‍नत के लिए ज़िम्मेदार ठहराता है (गि 30:6-9; प्र04 8/1 पेज 27 पै 4)

मसीहियों की दो मन्‍नतें सबसे खास होती हैं। एक है समर्पण का वादा और दूसरी है शादी की शपथ।

खुद से पूछिए, ‘मैंने जो मन्‍नतें मानी हैं, क्या मैं उन्हें पूरा कर रहा हूँ?’